Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 457
________________ ४३० जैन-दर्शन के नव तत्त्व सांख्य और योग दर्शन में 'मोक्ष' तत्त्व : ___'सांख्य' दर्शन मोक्ष को प्रकृति और पुरुष का विवेक मानता है। प्रकृति और पुरुष इन में भेद ज्ञान होने पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिर होना यही इस दर्शन की दृष्टि से 'मोक्ष' है। पुरुष नित्य-मुक्त है। अपने अज्ञान के कारण वह प्रकृति और उसके विकारों को अपना मानता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अंहकार ये सारे प्रकृति के विकार हैं, परंतु अविवेक से पुरुष इन्हें अपना समझता है। 'मोक्ष' यह पुरुष की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति हैं। योग दर्शन आत्मा की कैवल्य दशा को मोक्ष मानता है। 'कैवल्य' यह आत्मा की, प्रकृति के जाल से छूटने की, एक विशेष अवस्था है। जब तप और संयम के कारण मन से सब कर्मसंस्कार निकल जाते हैं, तब आत्मा को इस अवस्था की प्राप्ति होती है। मीमांसा दर्शन में 'मोक्ष' तत्त्व : ___मीमांसा दर्शन में भी मोक्ष को आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की प्राप्ति कहा है। सुख और दुःख का पूर्णतः विनाश ही मोक्ष है, ऐसा वे मानते हैं। अपनी स्वाभाविक अवस्था में आत्मा अचेतन होता है। 'मोक्ष' यह दुःख के आत्यंतिक अभाव की अवस्था है। उसमें अनंत की अनुभूति भी नहीं रहती, ऐसा वे मानते हैं। आत्मा स्वभावतः सुख और दुःख से अलग है। मोक्ष अवस्था में ज्ञानशक्ति तो रहती है, परंतु ज्ञान नहीं रहता, ऐसा उनका कथन है। चार्वाक दर्शन में 'मोक्ष' तत्त्व : चार्वाक दर्शन की दृष्टि से मृत्यु, अपवर्ग अथवा मोक्ष इनका अस्तित्व ही नहीं है। मोक्ष का सिद्धांत सब भारतीय दर्शनों को स्वीकार्य है परंतु चार्वाक भौतिकवादी होने से इसे नहीं मानते है। क्योकि वे आत्मा को शरीर से अलग ही नहीं मानते है। अतः उनकी दृष्टि से आत्मा के बंधन की कोई समस्याएँ ही नहीं है। चार्वाक की दृष्टि से इस मनुष्य जन्म में पृथ्वी तल पर सुख भोगना यही असली मोक्ष है। 'देह यही आत्मा है। देह का विनाश ही मोक्ष है'। देहच्छेदो मोक्षः । यही चार्वाक की मोक्ष की कल्पना है। ज्ञान आदि से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। उनकी दृष्टि से वर्तमान जीवन यही सब कुछ है। परलोक और जन्मान्तर कुछ भी नहीं हैं। खाना, पीना और मौज करना, यही जीवन का सार है, चार्वाक दर्शन का मूल मंतव्य है “यावज्जीवेत सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।" भारत में यह विचार चार्वाक (चारु-वाक्) दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। पाश्चात्य दुनिया की विचारधारा भी इसी प्रकार की है वह भी "Eat, drink Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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