Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 453
________________ ४२६ जैन दर्शन के नव तत्त्व (७) निर्जरा तत्त्व : जीव के साथ पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करना अथवा अंशतः क्षय करना 'निर्जरा' है। निर्जरा की अवधारणा अन्य दर्शनों में नहीं मिलती। यह जैन दर्शन की एक विशेषता अवधारणा है 1 प्रत्येक कर्म अपनी काल मर्यादा में उचित फल देकर आत्म-प्र - प्रदेशों से अलग होता है । परंतु 'सविपाक निर्जरा' से जीव का कल्याण नहीं होता। क्योंकि अपना स्वाभाविक फल देकर नष्ट होने वाले कर्म जीव में इस प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं कि जिससे नवीन कर्मबंध होते है और जीव दुःखों से मुक्त नहीं होता । परंतु धार्मिक अनुष्ठान द्वारा आस्रव का निरोध कर कर्मों का क्षय करने पर 'अविपाक निर्जरा' होती है। उससे जीव को कर्म से छुटकारा मिलता है और आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रकट होते है। जब निर्जरा द्वारा पूर्वसंचित सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं, तभी जीव के अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य नामक गुणों का प्रकटन होता है । यही मोक्ष है। यही जीव के द्वारा परमात्म अवस्था की प्राप्ति है 1 निर्जरा तत्त्व पुरुषार्थ का सूचक है। कर्मों का विनाश अपने आप होगा ऐसा माननेवालों को मुक्ति नहीं मिलेगी। आत्मा के साथ अनादि काल से बद्ध कर्मों का नाश सहजता से होना अशक्य है, इसलिए पहले संवर का मार्ग और बाद में निर्जरा का मार्ग बताया गया 1 गीता में 'ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते । ऐसा कहा गया है 1 कुछ लोगों को लगता है कि ज्ञानमार्ग अलग है और निर्जरामार्ग अलग है। परंतु दोनों मार्ग एक ही हैं। तप से चित्त का शोधन और शारीरिक क्रियाओं का निरोध होने पर ज्ञानज्योति प्रकट होती है । एक क्रिया है, तो दूसरी उपलब्धि है । तप क्रिया है तो ज्ञान उपलब्धि है, इसलिए ज्ञानमय मार्ग यही निर्जरा का मार्ग है 1 जिस प्रकार छिद्र द्वारा नौका में प्रविष्ट पानी कुछ योजा करके बाहर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार आस्रव द्वारा आत्मा में प्रविष्ट कर्म निर्जरा द्वारा बाहर फेंक दिए जाते हैं। उनका क्षय किया जाता है। निर्जरा की व्याख्या, निर्जरा का स्वरूप, निर्जरा और मोक्ष में अंतर, मोक्ष - प्राप्ति के दो कारण और निर्जरा के बारह भेद आदि का विस्तृत विवेचन निर्जरा तत्त्व के विवेचन में किया गया है। (८) बंध तत्त्व : जीव कषाययुक्त होकर कर्म रूप में परिणत होने के योग्य पुद्गल द्रव्य का ग्रहण करता है, यही 'बंध' है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये ही बंध के कारण हैं । कर्मयोग्य पुद्गलों का और जीव का अग्नि और लोहपिण्ड के समान परस्पर अनुस्यूत होना ही 'बंध' है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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