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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जीव द्रव्य को आत्मा भी कहते हैं। जैन दर्शन में यह एक स्वतंत्र द्रव्य माना गया है। जीव अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य इस अनंत-चतुष्टय के युक्त है और इसका सामान्य लक्षण उपयोग है। आत्मा सारे जड़ द्रव्यों से अपना भिन्न अस्तित्व रखता है। आत्मा रूप, रस, गंध और स्पर्शरहित है। वह स्वभाव से अमूर्त है। असंख्यात प्रदेशयुक्त है। प्रदेश में संकोच
और विस्तार होने से वह छोटे-बड़े शरीर के आकार को धारण करता है। जीव द्रव्य दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है -१) संसारी जीव और २) मुक्त जीव । परंतु सभी जीव समान गुण और समान शक्ति के होते है। जिस जीव का संसारचक्र एक बार रूक जाता है, उसे पुनः संसार में आने का कुछ भी कारण नहीं रहता। अनंत जीवों ने अपनी संसार-यात्रा समाप्त करके सिद्धगति प्राप्त की
जैन धर्म द्वारा मान्य दो मुख्य तत्त्व हैं जीव और अजीव। इन्द्रियाँ की शक्ति बल (मन,वचन,काया) आयु, श्वासोच्छवास ये संसारी जीव के लक्षण हैं। शुद्ध जीव के लक्षण हैं - अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य ओर अनंत सुख। ये गुण शुद्ध यानी मुक्त जीव में ही मिलते हैं। प्रत्येक जीव अनादि काल से अशुद्ध अवस्था में ही है और यह अवस्था उसे अजीव कर्मपुद्गल के संबंध के कारण प्राप्त हुई है। इस अशुद्ध अवस्था को संसार कहते हैं और शुद्ध अवस्था को मोक्ष कहते हैं। एक बार जीव मुक्त होने पर पुनः वह कभी अशुद्ध अवस्था में नहीं आएगा।
___जैन मतानुसार जीव छह प्रकार के हैं। उन्हें 'षट्काय' कहते हैं। वे हैंपृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय।"
इनमें से वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवधारी है, ऐसा सामान्यतः सब दार्शनिक मानते हैं। परंतु पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु ये स्वयं प्राणयुक्त हैं ऐसा केवल जैनदर्शन ही मानता है। यह जैन धर्म का वैशिष्टय है।
इन छह काय-जीवों की हिंसा अलग-अलग कारणों से होती हैं। पृथ्वीकाय की हिंसा कुंए-तालाब खोदने पर, महल बानाने पर, ईमारतें बनाने पर, घर बनाने पर होती है। अप्काय की हिंसा स्नान करने से, पानी पीने से, कपड़ा धोने आदि से होती है। अग्निकाय की हिंसा भोजन पकाना, लकड़ी जलाना आदि से होती है। वायुकाय की हिंसा पंखे से हवा लेने से, सूप से अनाज साफ करने आदि से होती है। वनस्पतिकाय की हिंसा विविध प्रकार के भवन बनाने से, नौकाएँ बनाने से, सब्जियाँ खाने आदि से होती है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम के कारण अनेक त्रस प्राणियों की हिंसा भी होती है। जीव एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते है। सभी की हिंसा सम्भव होती है। हिंसा से आठ कमों का
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