Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 448
________________ ४२१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व संस्कृति, सभ्यता और विज्ञान का नवनिर्माण किया है। उसकी परमार्थ भावना अत्यंत भव्य है। जैन संस्कृत वाङ्मय में वर्णित नवतत्वों में 'जीव' तत्त्व को प्रमुख माना गया है। 'जीव' तत्त्व साधना का आधारस्तंभ है और अंतिम साध्य मोक्ष की प्राप्ति में समर्थ है। ... 'जीव' के स्वरूप के बारे में दार्शनिकों में मतभिन्नता होते हुए भी उन्होंने एक मत से उसमें चेतना सामर्थ्य को मान लिया है। चैतन्य सामर्थ्य के अभाव में 'जीव' को 'अजीव' कहा जाता है। अजीव को ही दूसरे शब्दों में स्पर्श, रूप, रस और वर्णयुक्त पुद्गल कहते हैं। जड़ की क्रिया जड़रूप होती है और जीव की क्रिया चैतन्यरूप होती है। जीव या आत्मा अनादि और अनंत है। इस विषय में साम्य और वैषम्य की चर्चा न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध दर्शनों के प्रसंग में की गई है। जीव और शरीर, जीव और आत्मा, चेतना और शरीर - इनके परस्पर संबंध को स्पष्ट करने का नम्र प्रयत्न किया है, और अंत में 'जीव' का अस्तित्व सिद्ध किया है। आत्मा का स्वभाव तो हमेशा ज्ञान-दर्शन रूप चेतनामय होता है इसलिए ऐसा कहा जाता है कि भारतीय दर्शन में जीव का महत्त्व अधिक है क्योंकि जीव ही कर्ममुक्त होकर मोक्षप्राप्ति करता है। जीव के आधार से ही आगम ग्रंथ निर्मित हुए है। इस संबंध में दार्शनिकों ने अनेक विकल्पों के आधार पर दार्शनिक ग्रंथों की निर्मिति की। आधुनिक विचारकों ने भी जीव के संबंध मे पर्याप्त उहापोह किया है। आज भी शास्त्रीय पद्धति से यह कार्य चल रहा है। भारत के समस्त दर्शनों ने आत्मा के अस्तित्व को मान लिया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा को नित्य पदार्थ मानते हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान उसके विशेष गुण है। आत्मा यह ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ये आत्मा के धर्म हैं। चैतन्य यह आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा दर्शन का भी यही मत है। मीमांसा दर्शन आत्मा को नित्य और विभु मानता है और चैतन्य को वे उसका आगन्तुक गुण मानते हैं। स्वप्नरहित, निद्रा के समान मोक्ष्व की अवस्था में आत्मा चैतन्य गुण से रहित होता है। सांख्य दर्शन में पुरुष को नित्य, विभु और चैतन्य स्वरूप माना है। इस दर्शन के अनुसार चैतन्य यह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं अपितु स्वाभाविक गुण है। पुरुष अकर्ता हैं। वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से परे है। बुद्धि ही कर्ता है और सुख-दुःख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है और प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। उसके विरूद्ध पुरुष चैतन्यस्वरूप और अकर्ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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