Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 412
________________ ३८५ जैन दर्शन के नव तत्त्व जिसे अनंत चतुष्क प्राप्त हुआ है, जो लोकान्त को प्राप्त हुए हैं वे सिद्धात्मा लोकाग्र पर स्थित होते है । उन सिद्धों के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीयादि आठ कर्म नष्ट हुए हैं उनका पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् इस चतुर्गति रूप संसार में उन्हें फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता जिनेश्वर द्वारा कथित मुक्ति . का यही स्वरूप है। १६६ इस प्रकार सिद्धात्मा निरतिशय, आलौकिक, अक्षय, अनंत, अव्याबाध दशा में आत्मलीन रहते हैं । मोक्ष की सिद्धता : मोक्ष प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है परंतु उसके संबंध में हम अनुमान कर सकते हैं । जिस प्रकार रहटका (Wheel) ( कूऐं पर से पानी खींचने का चाक) घूमना उसके लकड़े के घूमने पर अवलंबिल है । लकड़े का घूमना बंद होता है और चाक का घूमना भी बंद होता है । उसी प्रकार कर्मोदय रूपी बैल के चलने पर ही चार गतिरूपी चक्र घूमते रहते हैं और यह चतुर्गति अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक आदि वेदनारूपी रहट को को फिराती है। कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र बंद पड़ता है और वह बंद होने पर संसार रूपी रहट को की गति रुक जाती है। इसी को ही मोक्ष कहते हैं । इस प्रकार इस सामान्य तर्क या शुद्ध युक्तिवाद से मोक्ष का अस्तित्व सिद्ध होता है । सभी विद्वानों ने मोक्ष को अप्रत्यक्ष होने पर भी उसका सद्भाव मान्य किया है और मोक्ष मार्ग की शोध करने लगे हैं, जिस प्रकार भावी सूर्य ग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि प्रत्यक्ष सिद्ध न होते हुए भी आगम द्वारा उसका ज्ञान होता है और वैसे ही मोक्ष का अस्तित्व भी आगम द्वारा सिद्ध होता है । प्रत्यक्ष अस्तित्व न होने पर यदि मोक्ष की कल्पना अमान्य करने में आवें तो सभी विद्वानों के सिद्धान्तों को क्षति पहुँचती हैं। कारण सभी विद्वान किसी न किसी प्रकार से अप्रत्यक्ष पदार्थ का अस्तित्व भी मान्य करते हैं। 1 २०० जैन दर्शन की यह विशेषता है कि यहाँ गुण को महत्ता है । व्यक्ति, जाति, लिंग, कुल, सम्प्रदाय आदि को महत्त्व नहीं है। जैन दर्शन में जीवादि नवतत्त्वों में से जीव और अजीव ये दो तत्त्व ही मूल तत्त्व माने गये हैं। आश्रव, पुण्य, पाप और बंध ये चार तत्त्व संसार और उसके कारणभूत राग और द्वेषादि का विवेचन करते हैं। संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व संसार से मुक्ति की साधना का विवेचन करते हैं। अंतिम मोक्ष तत्त्व साधना का फल या परिणाम है । जीव साधना के द्वारा स्वयं अपने स्वभाव को प्रकट करके तथा उसमें ही रममाण होकर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। नर से नारायण बन सकता है। जीव से शिव बन सकता है। उस परमात्म पद की साधना और उसका स्वरूप समझने के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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