Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 438
________________ ४११ जैन- दर्शन के नव तत्त्व परिणामशील होकर भी नित्य है । आत्मा में चित् और अचित् ऐसे दोनों अंश भाट्ट मीमांसकों ने माने हैं। उसमें से चित् अंश से आत्मा ज्ञान का अनुभव लेता है, और अचित् अंश से वह परिणामस्वरूप होता है। भाट्ट मीमांसक आत्मा को ज्ञान का कर्ता और ज्ञान का विषय ऐसा उभयविध मानते हैं । परंतु प्रभाकर मीमांसक उसे अहंप्रत्ययवेद्य ही मानते हैं । चार्वाकदर्शन का जीवतत्व : चार्वाक देह ही आत्मा है और देह का विनाश यही मोक्ष ऐसा मानते हैं देह को आत्मा मानने पर मैं स्थूल हूँ, मैं अशक्त हूँ, मैं काला हूँ, आदि विधान सिद्ध हो सकते हैं। देहात्मवाद को स्वीकार कर लेने पर कोई भी प्रश्न बाकी नहीं रहते है । आत्मा पर शरीर के गुणों का आरोप किया गया है इसलिए 'मैं स्थूल हूँ इस वाक्य की सिद्धि के लिए आत्मा (अहं) और देह को (स्थूलः ) एक सरीखा समझना पड़ेगा। अगर आत्मा देह एक न होते तो 'अहं स्थूलः' यह वाक्य कैसे बनता? अगर शरीर आत्मा है तो 'अहं शरीरं' ऐसा कहना चाहिए । 'मम शरीरं ' कैसे कहा जाएगा? 'मम शरीरं' तभी कहा जाएगा जब आत्मा (अहं) और शरीर में भेद होगा। इस प्रकार भारतीय दर्शनों में चार्वाक दर्शन एकांत रूप से भौतिकवादी है । इस दर्शन का लक्ष्य भौतिक सुख है । चार्वाक दर्शन भूत और भविष्य की उपेक्षा कर केवल वर्तमानकाल को ही महत्त्व देता है । क्योकि यह दर्शन केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा बाकी सब का वह निषेध करता है 1 वे कहते हैं कि जब तक जीवित रहना है, तब तक सुखपूर्वक जीओ । ऋण करके घी खाओ। यह शरीर भस्म होने पर जिसके लिए पुनः जन्म धारण करना पड़ेगा ऐसी कोई भी वस्तु बाकी नहीं रहेगी। वे 'आत्मा' नामक तत्त्व को मानते ही नहीं है। चार महाभूतों के अलावा कोई भी स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। चार महाभूतों का संयोग ही जीवन है और चार महाभूतों के संयोग का नष्ट होना ही मृत्यु है । जीवन में खूब खुशी लूटना यह इस दर्शन के अनुसार जीवन का लक्ष्य है । इहलोक के अलावा परलोक नामक कोई वस्तु ही नहीं है । शरीर यही आत्मा है । मृत्यु यही मुक्ति है। इसलिए शरीर में जब तक प्राण हैं, तब तक सुख प्राप्त करते रहना चाहिए। धर्म यह पुरुषार्थ नहीं है, काम यही मानवी जीवन का पुरुषार्थ है, जीवन के विषय में चार्वाक दर्शन के इस प्रकार के मत हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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