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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
आत्मा और ब्रह्म ये दोनों एक ही हैं, यह उपनिषदों का सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक सिद्धांत है। यह निष्कर्ष 'अहं ब्रह्मास्मि', 'तत्त्वमसि' जैसे महावाक्यों में ग्रथित हुआ है। मानव और विश्व इन दोनो में एक ही चैतन्ययुक्त, आनंदस्वरूप, अविनाशी तत्व निहित है। बाकी सब भौतिक है, विनाशी है और वह महत्त्वपूर्ण भी नहीं है। उस आनंदस्वरूप या सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म से तद्रूप होना, उसके साथ नैसर्गिक तदात्म्य प्रस्थापित करना यही मानवी जीवन का ध्येय है, यही मोक्ष है। आरूणी, श्वेताकेतु, याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी आदि के संवादों में इस सत्य का बड़े ही विस्तार से स्पष्टीकरण हुआ है। उपनिषदों का यह रोचक सिद्धांत है। इसका विवेचन हमें बार-बार मिलता है। उपनिषदों की दृष्टि अंतर्मुख है और यह बात उनकी 'ब्रह्मन्' और 'आत्मन्' संबंधी अवधारणाओं से समझी जा सकती है। विश्व का 'सत्य' ढूंढते समय पंच-महाभूत तथा इन्द्र, सूर्य-चंद्र आदि देवताओं का शासन/नियमन करनेवाले तत्त्व के नाते ब्रह्म पर उनका विचार स्थिर हुआ। इसी प्रकार मानव में सत्य क्या है यह ढूंढते समय देह इन्द्रियाँ इन सब का विचार करके, वे 'प्राण' या 'आत्मा' इस कल्पना पर स्थिर हुए। सांख्य-योगदर्शन का जीवतत्व :
सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष ऐसे दो मूलतत्त्व माने हैं। सांख्यों का पुरुष ही आत्मा है। यह आत्मा या पुरुष स्वयंसिद्ध है। वह चैतन्यरूप है और स्वयं ज्ञाता है। वह कभी ज्ञान का विषय नहीं होता। साथ ही वह कूटस्थनित्य और व्यापक है। वह प्रत्येक शरीर में भिन्न है ऐसा सांख्यों का भी मत है।
योग-दर्शन ने भी जीव का अस्तित्व माना है। जीव अनेक है। जीव को अनेक प्रकार के क्लेश भोगने पड़ते हैं। वह विविध कर्म करता है और उन कमों के फल भी भोगता है। पूर्वजन्म के संस्कारों का प्रभाव भी जीव पर पड़ता है, ऐसा योग-दर्शन ने माना है।
सांख्यदर्शन ने चैतन्य में कर्तृत्व, भोक्तृत्व माना है। गुणगुणी भाव या धर्मधर्मी भाव को स्वीकार न करने से, वह पुरुष में किसी भी प्रकार के गुण या धर्म के सद्भाव अथवा परिणाम सांख्यदर्शन नहीं मानता है। सांख्यदर्शन शक्ति को चेतना में न मानकर सूक्ष्म शरीररूप जो बुद्धितत्त्व है, उसमें मानता है। मीमांसादर्शन का जीवतत्व :
मीमांसा दर्शन ने आत्मा को कर्ता और भोक्ता ऐसा उभयविध माना है। वह आत्मा को व्यापक और प्रति शरीर भिन्न मानता है। ज्ञान, सुख, दुःख आदि गुण उसमें समवाय संबंध से रहते हैं। मीमांसा दर्शन के मत से आत्मा यह ज्ञान-सुखादि रूप नहीं है। भाट्ट मीमांसक आत्मा में क्रिया का अस्तित्व मानते हैं। स्कंध और परिणाम ऐसे क्रिया के दो भेद हैं। भाट्ट मतानुसार आत्मा
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