Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 436
________________ ४०९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व है। वह एक शरीर नष्ट होने के बाद दूसरा शरीर धारण करता है। इस प्रकार मन का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना यही आत्मा का पुर्नजन्म है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ज्ञान, श्रद्धा और पुरुषार्थ की शुद्धि-अशुद्धि के परिणाम के अनुसार आत्मा की उत्क्रांति और अपक्रांति मानता हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा का स्वरूप उपरोक्त प्रकार से मिलता है। वेदान्त दर्शन का जीवतत्व : वेदान्त दर्शन ने अंतःकरणावच्छिन्न चैतन्य को जीव कहा है। शंकराचार्य ने शरीर और इन्द्रियों का अध्यक्ष और कर्म-फलों का भोक्ता जो आत्मा है उसे जीव ऐसी संज्ञा दी है। आत्मा यह परब्रह्म का व्यपदेश होने से परब्रह्म के समान ही विभु है। जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएँ और अन्नमय, मनोमय, प्राणमय आदि पाँच कोश इनमें आत्मचैतन्य उपलब्ध होता है। लेकिन आत्मा का शुद्ध चैतन्य तो इसके भी पर है। जीव की वृत्ति उभयमुखी होती है। जब बहिर्मुख होती है तब विषयों को प्रकाशित करती है और जब अंतर्मुख होती है तब आत्मा को अभिव्यक्त करती है, ऐसा वेदान्त में कहा है।। जीव या आत्मा यह चैतन्यात्मक होने से वह परमेश्वर की उत्कृष्ट विभूति है, ऐसा गीता में माना है। गीता उसे क्षेत्रज्ञ कहती है। कृत कर्म का फल भोगनेवाला यह शरीर क्षेत्र है और इस क्षेत्र का जो ज्ञाता है वह क्षेत्रज्ञ आत्मा है। गीता के दूसरे अध्याय में आत्मा के अजन्मा, नित्य, शाश्वत और षडूविकार रहित होने का वर्णन मिलता है। उसी प्रकार वह सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है, ऐसा भी उसमें उल्लेख मिलता है। उपनिषदों के मूलभूत सिद्धांत 'ब्रह्मन' और 'आत्मन' इन दो अवधारणाओं पर केन्द्रित हैं, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें से 'ब्रह्मन्' इस शब्द से विश्व के मूल में निहित सत्य को दर्शाया गया है और 'आत्मन्' इस शब्द से मानव में निहित सत्य अभिप्रेत है। उपनिषदों के विचारक इस बाह्य विश्व के समान ही उससे सुसंवादी ऐसी मानव को अंतर्यामी की सृष्टि मानते हैं। उनके प्रयत्न हमेशा इन दोनों विश्वों में निहित सत्य को ढूंढकर उनका परस्पर क्या संबंध है, इसे देखने का होता हैं। उनके इस अभ्यास की दो दिशाएँ हैं। उनका निष्कर्ष ऐसा है कि यह विश्व ब्रह्म से निर्मित हुआ है, इसलिए स्थिर है और अंत में उसी में विलीन होनेवाला है इसलिए यह विश्व ब्रह्म ही है। 'सर्व खलु इदं ब्रह्म' जैसे महाकाव्यों का यही अर्थ है। मानव जगत में अंतिम सत्य आत्मन् है और देह का विनाश हुआ तो भी 'आत्मन्' अमर और अविनाशी है, विकार के परे है। यह आत्मा आनंद स्वरूप है। 'तत्सत्यं स आत्मा', 'एषः स आत्मा' इस प्रकार के वचनों से यही बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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