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जैन-दर्शन के नव तत्त्व अज्ञान के कारण जो पाप होता है उसका प्रायश्चित्त यह है कि परमात्मा उसे क्षमा करता है, परंतु जानबूझकर जो पाप किया जाता है, उससे कैसे बचा जा सकता
- शरच्चन्द्र (काशीनाथ) पाप छुपाने से बढ़ता है।
- शरत्चन्द्र (विराजबाहु) अपना कर्त्तव्य करने से पहले, दूसरे के कर्त्तव्य की इच्छा करने से पाप होता है।
संसार में जितने पाप हैं उनमें से सबसे बड़ा पाप है मनुष्य की दया पर अत्याचार करना। जिस प्रकार अग्नि अग्नि को नहीं बुझाती, उसी प्रकार पाप पाप का शमन नहीं करता।
- टालस्टाय Poverty and wealth are comparative sins. दरिद्रता और सम्पत्ति दोनों समान पाप हैं।
___- क्विटर ह्यूगो पाप का फल दुःख नहीं, परंतु एक दूसरा पाप है। - जयशंकर प्रसाद पाप में पड़ना मानवीय स्वभाव है किन्तु उसमें मग्न रहना राक्षसी स्वभाव है। उस पर दुःखी होना संत-स्वभाव है और सब पापों से मुक्त होना ईश्वरीय स्वभाव है।
- लॉन्गफैलो पाप में गिरने वाला जो मनुष्य पाप करने पर पश्चात्ताप करता है वह साधु और जो पाप के लिए अभिमान करता है, वह शैतान । - कुलर
पुत्रेषु वा नप्तृषु वा न चेदात्मनि पश्यति। फलत्येव ध्रुवं पापं गुरुभुक्तमिवोदरे।।
- वेदव्यास कायेन कुरुते पापं मनसा संप्रधार्य तत्। अनृतं जिया चाह त्रिविधं कर्मपातकम्। अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः ।
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः ।। - वाल्मीकि मनुष्य असत्यरूप पाप का प्रथमतः मन में विचार करता है, बाद में शरीर द्वारा प्रकट करता है और जिह्वा से कहता है, तब मानसिक, कायिक और वाचिक तीन प्रकार का पातक होता है।०६
-लोकमान्य तिलक ___ एक बार एक शिष्य ने गुरुजी से पाप के बारे में पूछा। तब गुरुजी ने उत्तर दिया - "जिस कार्य को करते समय और करने के बाद मन भयभीत होकर लज्जा और ग्लानि से भर जाता है, उस कृत्य को पाप कहते हैं।"
पुण्य के बारे में पूछने पर गुरुजी ने कहा, "जिस कृत्य को करते समय मन में आनन्द की अनुभूति होती है और अन्त में उल्लास, आह्लाद और प्रसन्नता आती है, उसे पुण्य कहते हैं।"
__पाप दुर्गन्ध के समान शीघ्र फैलता है, परंतु पुण्य सुगन्ध के समान धीरे-धीरे फैलता है। दुर्गन्ध से जीव अस्वस्थ होता है, परंतु सुगंध से प्रसन्न हो जाता है।
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