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जैन- दर्शन के नव तत्त्व
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जो मुमुक्षु उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन और मनन करता है, वह मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर आत्मा में स्वानुभव करने लगता है इस प्रकार ऐसा मुमुक्षु पवित्र यश और वचन को धारण कर अन्त में सम्यक् दर्शन आदि उत्कृष्ट गुणों द्वारा निर्वाण पद प्राप्त करता है ।
भूतकाल में जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध पुरुष हुए हैं तथा जो आगे होंगे, उन्होंने इन्हीं भावनाओं का चिन्तन किया है और आगे भी करेंगे। इससे भी इन भावनाओं का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। १४६
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इन बारह भावनाओं के सतत् अध्ययन से व्यक्ति के हृदय में स्थित कषायरूपी अग्नि बुझ जाती है। साथ ही पर-द्रव्य के विषय में होने वाली आसक्ति नहीं रहती और अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट होकर ज्ञानरूपी दीप का प्रकाश फैलता है
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ज्ञानी पुरुषों को इन बारह अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन करना चाहिए क्योंकि इस चिन्तन से कर्मक्षय होता है।
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इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने से साधक प्रमादरहित होता है और उससे महान् संवर होता है ।
बाईस परीषहजय
सर्दी, गर्मी, भूख प्यास आदि से बाधा पहुँचने पर भी दुःखी न होना अथवा ध्यान से विचलित न होना 'परीषहजय' है । पूर्ण तथा दृढ़ वैराग्य भावना होने पर साधक विचलित नहीं होता ।
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दुःख प्राप्त होने पर भी दुःखी न होना 'परीषहजय' है। कड़ी भूख, प्यास आदि वेदनाएँ शांत भाव से सहन करना भी 'परीषहजय' कहलाता है । १५० परीषहों पर विजय प्राप्त करना 'परीषहजय' है । क्षुधा आदि वेदनाएँ होने पर भी कर्म-निर्जरा के लिए दुःख सहन करना परीषहजय है । ""
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सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य
इस रत्नत्रयरूप मोक्ष- मार्ग से विभक्त ( दूर या च्युत) न होना और कर्म की निर्जरा के लिए दुःख सहन करना 'परीषहजय' कहलाता है ,१५२
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क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण (गर्म), दंशमशक, नग्नत्व अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, सत्कार- पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन विवेचन इस प्रकार किया गया है
अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, ये बाईस परीषह हैं ।" इनका
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१. क्षुधा परीषह : भूख सहन करना अर्थात् अत्यंत भूख लगने पर भी उसे धैर्य
और शान्ति से सहन करना ।
२. तृषा परीषह : अतीव प्यास लगी होने पर भी व्याकुल न होते हुए उसे शांति
से सहन करना ।
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