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जैन-दर्शन के नव तत्त्व है और आत्मा नये जन्म के साथ भी रहता है। इस प्रकार जहाँ शरीरी और अशरीरी (आत्मा) में अन्तर स्पष्टतः प्रतीत होता है, वहाँ धन और बंधु-बांधवों की भिन्नता बताना या समझाना बिलकुल कठिन नहीं है।०२८
(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा
... शरीर अपवित्रता, दुर्गन्ध, मलिनता और मांसादि से भरा हुआ है - ऐसा चिन्तन करना ‘अशुचित्वानुप्रेक्षा' है।
___ इस देह के नौ द्वारों से सदैव दुर्गध से युक्त रस निकलता रहता है और उस रस से देह लिप्त रहती है। ऐसी अपवित्र देह में पवित्रता की कल्पना करना अत्यधिक मोह की विडंबना ही है।३९
(७) आनवानुप्रेक्षा
मिथ्यात्व आदि भावना से कर्म का आनव होता है। आस्रव ही संसार का मूल कारण है, ऐसा चिन्तन करना ही 'आस्रवानप्रेक्षा' है।
मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं। योग द्वारा जीव में शुभ और अशुभ कर्मों का आगमन होता है, इसलिए योग को आनव कहते
(८) संवरानुप्रेक्षा
___आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश न होने देना 'संवर' है। संवर से जीव का कल्याण होता है। संवर के स्वरूप का और गुणों का चिन्तन करना ‘संवरानुप्रेक्षा'
सम्यक् दर्शन द्वारा मिथ्यात्व को जीतना चाहिए। साथ ही शुभ भावना में चित्त को स्थिर करके आर्त-रौद्र ध्यान को जीतना चाहिए। किस आम्नव का किस उपाय से निरोध किया जा सकता है, बार-बार इस प्रकार का चिन्तन करना ‘संवर भावना' है।४१
(E) निर्जरानुप्रेक्षा
निर्जरा के स्वरूप और गुणों का चिन्तन करना 'निर्जरानुप्रेक्षा' है, केवल कर्म की निर्जरा के लिए जो तपश्चरण आदि क्रियाएँ की जाती हैं, उन क्रियाओं से होने वाली निर्जरा ‘सकाम निर्जरा' है । यह निर्जरा सम्यक् दृष्टि वाले जीवों को ही प्राप्त होती है। सम्यक्त्व से भिन्न एकेन्द्रिय आदि अन्य प्राणियों के कर्मों की निर्जरा करने की अभिलाषा के अलावा भूख, प्यास आदि कष्टों को सहन करने से जो निर्जरा होती है, उसे 'अकाम निर्जरा' कहते हैं। प्रत्येक संसारी जीव
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