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जैन-दर्शन के नव तत्त्व सिद्धि होती है। जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि और संयम-बाधा-निवृत्ति आदि के लिए घी, दही, गुड़ और तेल आदि का त्याग करना ‘रसपरित्याग' है।६
(५) विविक्तशय्यासन (प्रतिसंलीनता) तप :
ब्रह्मचर्य-पालन, जीव-संरक्षण, ध्यानसिद्धि तथा स्वाध्याय आदि के लिए एकान्त जगह रहना, सोना या आसन लगाना 'विविक्तशय्यासन' कहलाता है।२७ ।
विविक्त-शय्यासन का दूसरा नाम प्रतिसंलीनता भी है। आत्मा में लीन होना ही प्रतिसंलीनतातप है। पर भावों में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन करना तथा इन्द्रिय, कषाय, मन, वचन और काय-योगों को बाहर से हटाकर आत्मा में लीन करना 'प्रतिसंलीनता' है।
प्रतिसंलीनतातप के चार भेद हैं - (१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, (२) कषाय-प्रतिसंलीनता, (३) योग-प्रतिसंलीनता और (४) विविक्तशयनासन-सेवना। इनका विवेचन इस प्रकार किया गया है(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता : इसमें ये विशेषताएँ हैं - (क) इन्द्रियों को विषय से परावृत्त करना और (ख) सहज रूप से इन्द्रियों से संबंधित विषयों में राग-द्वेष रूप विकल्प न रखना। (२) कषाय-प्रतिसंलीनता : कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया तथा लोभ - इन विकारों को न आने देना और आये हुए विकारों को दूर करना। (३) योग-प्रतिसंलीनता : योग के तीन भेद हैं - (क) मनोयोग, (ख) वचनयोग और (ग) काययोग। मन, वचन एवं काया को अशुभ प्रवृत्तियों से परावृत्त कर, शुभ प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट करना- 'योग-प्रतिसंलीनता' कहलाता है। (४) विविक्तशयनासन-सेवना : ब्रह्मचर्य की साधना करना और साधक का स्वावलम्बन, कष्टसहिष्णुता तथा निर्भयता और निर्ममत्व भाव में अग्रसर रहना। (६) कायक्लेश :
__ शरीर को कष्ट देना, उसका दमन करना, इन्द्रियों का निग्रह करना - इन शब्द-प्रणालियों के पीछे एक आध्यात्मिक चिन्तन है। यह भारतीय अध्यात्म-दर्शन की पृष्ठभूमि है।
समस्त दुःख एवं कष्ट शरीर को होते हैं। आत्मा को नहीं होते। कष्टों के कारण शरीर को ही पीड़ा होती है। वध करने से शरीर का नाश होता है, परन्तु आत्मा का नाश नहीं होता - नत्थि जीवस्स नासुत्ति - उत्तराध्ययनसूत्र २/२७ ।
आत्मा का स्वरूप ज्ञान, दर्शन और चिन्मयरूप है। आत्मा को कभी कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती और उसका कभी नाश भी नहीं हो सकता। यही आत्मा का स्वरूप है। किन्तु शरीर भौतिक है तथा नाशवान है।
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