________________
२९४
जैन-दर्शन के नव तत्त्व
दशा के कारण कर्म-पुद्गलों के आत्मा के साथ होने वाले संबंध को 'द्रव्यबंध' कहते हैं। 'बंध' के चार भेद :
कर्म-पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किए जाने पर कर्मरूप परिणमन अर्थात् रूपान्तर को प्राप्त होते हैं। उसी समय उनमें चार स्थितियाँ निर्मित होती हैं। ये स्थितियाँ ही बंध के भेद हैं। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि द्वारा खाए गए घास
आदि का जब दूध में रूपांतर होता हैं, तब उसमें मधुरता के स्वभाव का निर्माण होता है। वह स्वभाव कुछ निश्चित काल तक उसी रूप में टिकेगा ऐसी काल-मर्यादा भी निश्चित होती हैं। इस मधुरता के तीव्रता, मन्दता आदि के विशेष गुण भी होते हैं और इस दूध का पौद्गलिक परिमाण भी होता है।
इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर तथा उसके आत्म प्रदेश में संश्लेष को प्राप्त होने पर कर्म पुद्गलों की भी चार स्थितियाँ होती हैं। ये हैंप्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। ये चार स्थितियाँ बंध के भेद हैं - १) प्रकृतिबंध २) स्थितिबंध ३) अनुभाग बंध ४) प्रदेशबंध।” १) प्रकृति बंध - प्रकृति अर्थात् स्वभाव। “प्रकृतिः स्वभावः प्रोक्तः ।" पयडी एत्थ सहावो। जिस प्रकार नीम का स्वभाव कड़वापन और गुड़ का स्वभाव मीठापन होता है, उसी प्रकार कर्म में भी आठ प्रकार के स्वभाव होते हैं। इन्हें प्रकतिबंध कहते हैं। आठ प्रकार के कर्म ये हैं - १) ज्ञानावरणीय, २) दर्शनावरणीय, ३) वेदनीय, ४) मोहनीय, ५) आयु, ६) नाम, ७) गोत्र और ८) अंतराय।२२
ज्ञानावरण का स्वभाव ज्ञान को आवरित कर देना है। दर्शनावरण का स्वभाव दर्शन को (सामान्य प्रतिभासरूप शक्ति को) ढक देना है। वेदनीय का स्वभाव जीव को इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के संयोग और वियोग में सुख-दुःखों का वेदन या अनुभवन कराने का है। मोहनीय में से दर्शनमोहनीय का स्वभाव तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देने का और चारित्र मोहनीय का स्वभाव संयम भाव में बाधक होने का और राग, द्वेष आदि उत्पन्न करने का है। आयुकर्म का स्वभाव जीव को किसी शरीर में स्थित रखने का है। नाम कर्म का स्वभाव जीव के लिए अनेक प्रकार के शरीर आदि बनाने का है। गोत्र का स्वभाव उच्च या नीच कुलों में जीव को उत्पन्न करना है। अन्तराय का स्वभाव दानादि कायों में विघ्न उत्पन्न करना है।
कर्म में इस प्रकार का स्वभाव निर्माण होना यह प्रकृतिबंध है।२२ आठ कों का विस्तृत विवेचन बाद में आएगा ही।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org