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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जैन दर्शन आत्मा रूपी दीपक के बुझने को मोक्ष नहीं मानता, वरन् आत्मा में जो राग-द्वेष के विकार आते हैं उन्हें दूर करके शुद्ध आत्म स्वरूप को प्रकट करना ही 'मोक्ष' है, ऐसा मानता है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा की ज्ञानज्योति प्रज्वलित रहती है। जैन दर्शन में विशेष करके 'मोक्ष' अथवा 'मुक्ति' शब्द का प्रयोग दिखाई देता है और उसका अर्थ कर्मबंधन से छूटना या मुक्त होना है। अनादि काल से आत्मा जिस कर्मबंधन से बद्ध है, उसे छोड़कर संपूर्णतया स्वतंत्र होना ही मोक्ष है। राग-द्वेष से मुक्त होना ही, संसार के कर्मबंधन से मुक्त होना है, इसी का अर्थ मोक्ष और सिद्धत्व की प्राप्ति है। यह आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है।
मोक्ष का सुख अनन्त और अलौकिक है। नवतत्त्वों में 'मोक्ष' तत्त्व सबसे श्रेष्ट तत्त्व है। मोक्ष का अर्थ है कर्मों से मुक्ति। मोक्ष का सुख शाश्वत है। उसके सुखों का कभी अन्त नहीं होता । देवों के सुख अगणित हैं, परन्तु देवों का यह त्रैकालिक सुख भी एक सिद्ध आत्मा के सुख के अनंतवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता। मोक्ष का स्वरूप
मोक्ष ही जीवमात्र का परम और चरम लक्ष्य है। जिसने सारे कमों का नाश करके अपना साध्य प्राप्त कर लिया, उसने पूर्ण सुख प्राप्त किया। कर्मबंधन से मुक्ति प्राप्त होने पर जन्म-मरणरूपी दुःख के चक्र की गति रुक जाती है और सच्चिदानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है।
बंधन की मुक्ति को 'मोक्ष' कहते हैं। मोक्ष में आत्मा की वैभाविक दशा समाप्त हो जाती हैं । मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन हो जाता है, अज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है, अचारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है, आत्मा निर्मल और निश्चल हो जाती है; शान्त एवं गंभीर सागर के समान चेतना निर्विकल्प हो जाती है। मोक्ष दशा में आत्मा का अभाव नहीं होता और वह अचेतन भी नहीं रहता। आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है। उसके अभाव और नाश की कल्पना करना मिथ्यात्व है। कितना भी परिवर्तन हुआ हो तो भी आत्म द्रव्य का नाश नहीं हो सकता। कमों से मुक्ति • राग-द्वेष का संपूर्ण क्षय होने पर होती है। वस्तुतः बंध के कारणों का और पूर्व संचित कमों का पूर्ण रूप से क्षय होना ही मोक्ष है। इस तात्त्विक भूमिका में आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में चिरकाल के लिए स्थिर होना ही मोक्ष या मुक्ति
मनुष्य- तिर्यच, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष आदि भेद कमों के कारण होते हैं। जब कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है, तब ये भेद नहीं रहते। फिर भी जैन दर्शन में मुक्त जीव के भेद की जो कल्पना की गई है, वह
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