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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
(२) व्यवहार चारित्र : अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति यही व्यवहार चारित्र या सराग चारित्र है। व्यवहार चारित्र की शुरुआत आत्मा के मन, वचन और कर्म की शुद्धि से होती है और उस शुद्धि का कारण आचार के नियमों का परिपालन है। सामान्यतः व्यवहार चारित्र में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति आदि का समावेश होता है।
जीव को सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान से युक्त चारित्र से देवेंद्र, धरणेंद्र और चक्रवर्ती आदि के वैभव के साथ निर्वाण की भी प्राप्ति होती है। सामान्यतया सराग चारित्र से देवेंद्र आदि का वैभव प्राप्त होता है और वीतराग चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है।
जो आत्मा सांसारिक संबंध के त्याग के लिए उत्सुक है, परंतु जिसके मन से तासक्ति के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, उसके चारित्र को व्यवहार चारित्र या सराग चारित्र कहते हैं।
निश्चय चारित्र यह साध्यरूप है और व्यवहार उसका साधन है। साधन एवं साध्य रूप इन दोनों चारित्रों को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव मोक्ष को प्राप्त होता है।
बाह्य शुद्धि होने पर अभ्यन्तर शुद्धि होती है और अभ्यंतर दोषों के कारण ही बाह्य दोष होते हैं।
शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रहरूप पदार्थों का त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है। उसे ही निश्चय चारित्र या शुद्धोपयोग भी कहते हैं। इन सब शब्दों का अर्थ एक ही है।. सम्यक् दर्शन और सम्यक ज्ञान इनका पूर्वापर संबंध : ज्ञान प्रथम या दर्शन प्रथम इस संबंध में जैन दार्शनिकों में प्रायः मतैक्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक जगह कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम दर्शन, बाद में ज्ञान चारित्र ऐसा कहा है। आचार्य कुंदकुंद ने दर्शनपाहुड़ में दर्शन को ही प्रथम तथा प्रधान स्थान दिया है। फिर भी कुछ स्थानों पर ज्ञान की प्राथमिकता और प्रधानता दिखाई देती है। उत्तराध्ययनसूत्र के उसी अध्ययन में मोक्षमार्ग के विवेचन में ज्ञान को भी प्रथम स्थान दिया है।
प्रथमतः ज्ञान या दर्शन में से किसे प्रथम माना जाये इसे समझने से पहले 'दर्शन' शब्द का अर्थ देखना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं - १) यथार्थ दृष्टिकोण और २) श्रद्धा। यदि दर्शन का अर्थ यथार्थ दृष्टिकोण यह लिया जाय तो दर्शन को प्रथम स्थान देना आवश्यक है। क्योकि अगर दृष्टिकोण ही अयथार्थ होगा, मिथ्या होगा, तो ज्ञान और चारित्र यथार्थ कैसे होंगे ? जिसकी
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