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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
१) अहिंसा : प्रमाद से स्थावर या त्रस जीवों का जीवन नष्ट न करना यह
'अहिंसा' व्रत है। २) सत्य : प्रिय, हितकर और सत्य बोलना यह सत्य वचन है। यदि वचन
सत्य होने पर भी अप्रिय और अहितकर हो, तो वैसा वचन
नहीं बोलना चाहिए। ३) अस्तेय : किसी के द्वारा बिना दी गई वस्तु को न लेना, यह अस्तेय व्रत
है। यदि कोई किसी की छोटी सी तीली भी बगैर पूछे ग्रहण
करता है, तो वह चोरी है। ४) ब्रह्मचर्य : ऐहिक और पारलौकिक, कायिक, वाचिक और मानसिक
काम-वासना का त्याग करना, इसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। ५) अपरिग्रह : सब पदार्थों का त्याग ही अपरिग्रह है। चारित्र के दो भेद :
सम्यक्-चारित्र के दो भेद हैं - १) निश्चय चारित्र और २) व्यवहार चारित्र। इनके ही दूसरे नाम क्रमशः १) वीतराग चारित्र और २) सराग चारित्र भी
(१) निश्चय चारित्र : निश्चयनय के अभिप्राय के अनुसार आत्मा का, आत्मा में, आत्मा के लिए तन्मय होना यही निश्चय चारित्र है, वीतराग चारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगियों को ही निर्वाण की प्राप्ति होती हैं। १३
निश्चय दृष्टि से चारित्र का वास्तविक अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि यह है। इस चारित्र में आत्मरमणता मुख्य होती है। ऐसे चारित्र का प्रादुर्भाव सिर्फ अप्रमत्त अवस्था में ही होता है और अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होनेवाला सब कार्य शुद्ध माना गया है।
चेतना में से जब राग-द्वेष, कषाय और वासनारूपी अग्नि पूर्ण शान्त होती है, तब असली नैतिक और धार्मिक जीवन का निर्माण होता है, और इस प्रकार का सदाचार ही मोक्ष का कारण है। जब साधक प्रत्येक क्रिया में जागृत रहता है, तब उसका आचरण बाह्य आवेग और वासनाओं से चलित नहीं होता। तभी वह निश्चय चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यह निश्चय चारित्र ही मुक्ति का कारण है।
आत्मा की विशुद्धि के कारण इस चारित्र की प्राप्ति होती है। जिसका ज्ञान प्राप्त करके जो योगी पाप तथा पुण्य दोनों से उपर उठ जाता है, उसे ही निर्विकल्प चारित्र प्राप्त होता है। शुद्ध उपयोग के द्वारा सिद्ध होने वाली आत्मा को अतींद्रिय, अनुपम, अनंत और अविनाशी सुख प्राप्त होता है।
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