________________
३७९
सिद्ध किसे कहें ?
जिन्होंने आठ कर्मों को उनके अवान्तर भेदों सहित नष्ट कर दिया है, जो तीनों लोकों के मस्तक के शिखर स्वरूप सिद्धशिला पर स्थित हैं, जो दुःखरहित हैं, सुखरूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुण सहित हैं, अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं जिन्होंने समस्त पदार्थों को जान लिया है, जो वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमा के समान हैं, अभेद्य आकार से युक्त हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
१७०
१७५
जो कर्म - मल से मुक्त हैं, ऊर्ध्व लोक के अंत को प्राप्त कर जो सर्वज्ञ, सर्वदशी बनकर अनंत अतींद्रिय सुख का अनुभव कर रहे हैं, वे सिद्ध हैं ।' जिनके अष्ट कर्म नष्ट हुए हैं, जो शरीर रहित हैं, जो अनंत सुख तथा अनंत ज्ञान में लीन हैं और जो परम प्रभुत्व को प्राप्त हैं, ऐसे आत्मा सिद्ध हैं, मुक्त हैं । १७२ जिन्होंने आठ कर्मों के बंधन को नष्ट कर दिया है, जो आठ महागुणों से युक्त हैं, जो लोकाग्र भाग पर स्थित हैं और नित्य हैं, वे सिद्ध हैं। शुद्ध चेतना अर्थात् केवल ज्ञान और केवल दर्शन से युक्त जीव सिद्ध मुक्त हैं I सभी सिद्ध जीव आत्मशक्ति की दृष्टि से समान हैं, उनमें कोई भी अंतर नहीं है। सिद्धों के भेद : अष्ट कर्मों का क्षय करके जो जीव सिद्ध हुए हैं, उनके पंद्रह भेद इस प्रकार हैं
१७३
१९७४
I
२) अतीर्थ सिद्ध ३) तीर्थंकर सिद्ध
जैन दर्शन के नव तत्त्व
अतीर्थंकर सिद्ध, ८) स्वलिंगसिद्ध,
१) तीर्थसिद्ध, २) अतीर्थ सिद्ध, ३) तीर्थंकर सिद्ध, ४) ५) स्वयंबुद्ध सिद्ध, ६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, ७) बुद्धवोधित सिद्ध, ६) अन्यलिंग सिद्ध, १०) गृहस्थलिंग सिद्ध, ११) स्त्रीलिंग सिद्ध, १२) पुरुषलिंग सिद्ध, १३) नपुंसक लिंग सिद्ध, १४) एक सिद्ध और १५ ) अनेक सिद्ध । ऊपर लिखित पंद्रह भेदों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- १७५ १) तीर्थ सिद्ध
४) अतीर्थकर सिद्ध ५) स्वयंबुद्ध सिद्ध
६) प्रत्येक बुद्ध सिद्ध
-
Jain Education International
तीर्थ यानी साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ऐसे चतुर्विध संघ की स्थापना होने के पश्चात् हुए सिद्ध ।
तीर्थ की स्थापना से पहले हुए सिद्ध । तीर्थंकर पद प्राप्त करने के पश्चात् हुए सिद्ध ।
तीर्थकरों के अतिरिक्त हुए सिद्ध ।
बाह्य निमित्त के बगैर स्वयं ही बोधि को
प्राप्त हुए सिद्ध ।
किसी बाह्य निमित्त से बोध प्राप्त कर हुए सिद्ध ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org