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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
गीता में भी ज्ञान, कर्म और भक्ति के रूप में त्रिविध साधना-मागों का उल्लेख है। हिन्दू धर्म के ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग ये त्रिविध साधनामार्ग के साथ एकरूप हैं। हिन्दू परम्परा में परम सत्ता के तीन पक्ष सत्यं-शिवं-सुंदरम् माने गए हैं। इन तीन पक्षों की उपलब्धि के लिए उन्होंने त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया है। सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान, सुंदर की उपलब्धि के लिए भाव या श्रद्धा, और शिव की उपलब्धि के लिए सेवा या कर्म माना गया है। गीता में एक प्रसंग में त्रिविध साधनामार्ग के रूप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है। इनमें प्रणिपात श्रद्धा का, परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करती है।
उपनिषद् में भी श्रवण, मनन और निदिध्यासन के रूप में भी त्रिविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण किया है। गहराई से देखने पर इनमें भी श्रवण श्रद्धा में, मनन ज्ञान में और निदिध्यासन कर्म में अंतर्भूत हो सकते हैं। पाश्चात्य परम्परा में भी तीन नैतिक आदेश उपलब्ध हैं
१) स्वयं का स्वीकार करो। (Accept thyself ) २) स्वयं को पहचानो। (Know thyself) ३) स्वयं बनो।
(Be thyself) पाश्चात्य चिन्तन के ये तीन नैतिक आदेश दर्शन, ज्ञान और चारित्र के समानार्थी हैं। आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व, आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व और आत्मनिर्माण में चारित्र का तत्त्व अंतर्भूत है। जैन दर्शन बौद्ध दर्शन गीता उपनिषद पाश्चात्य दर्शन सम्यग्दर्शन समाधि श्रद्धा श्रवण Accept thyself सम्यग्ज्ञान प्रज्ञा,
मनन
Know thyself सम्यक्-चारित्र शील
कर्म, निदिध्यासन Be thyself त्रिविध साधना मार्ग और मुक्ति :
कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधना मार्ग में से एक पक्ष को ही मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना है। आचार्य शंकर ने ज्ञान को और रामानुज ने भक्ति को मोक्ष का साधन माना है। परन्तु जैन दार्शनिक ऐसी कोई भी एकांतवादिता स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ज्ञान, कर्म और भक्ति की एकत्रित साधना मोक्षप्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक का अभाव होने पर मोक्षप्राप्ति संभव नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता। सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति नही मिल सकती। इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों अंग होना आवश्यक है।६९
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