Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 409
________________ ३८२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व सिद्धों का सुख आलौकिक सुख है। कर्मजन्य क्लेशों से रहित होने के कारण मोक्ष अवस्था में जो सुख है वह अनुपम है। यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि शरीर रहित मुक्त जीव का सुख कैसा होगा? तो उसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इस लोक में विषय, वेदना का अभाव, विपाक और मोक्ष इन चार शब्दों में 'सुख' शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे अग्नि सुखरूप है, वायु सुखरूप है। यहाँ विषय जन्य सुख है । दुःख का अभाव होने पर मनुष्य कहता है'मैं सुखी हूँ।' यहाँ वेदना के अभाव में सुख शब्द प्रयुक्त हुआ है। पुण्यकर्म के उदय से इन्द्रियों के इष्ट पदार्थों को उपलब्धि से सुख होता है । यह कर्म विपाक जन्य सुख है, किन्तु कर्मजन्य क्लेशों से छुटकारा प्राप्त होने पर जो परम सुख मिलता वह मोक्ष का सुख है। मोक्ष में मुक्त जीव का शरीर नहीं है और किसी न किसी कर्म का उदय है, फिर भी कर्मजन्य क्लेशों से छुटकारा मिलने पर उन्हें सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है। सुख आत्मा का स्वाभाविक गुण है। परंतु मोह आदि कर्मों के उदय काल में उसका स्वाभाविक परिणमन नहीं होता, दुःखरूप वैभाविक परिणमन होता है। मुक्त जीव के इन मोहादि कर्मों का सर्वथा अभाव होता है इसलिए उनका सुख स्वाभाविक सुख है । उनके जैसा सुख संसार में किसी भी अन्य प्राणी को नहीं मिलता। 1 .१८१ संपूर्ण संसार में मुक्त जीव के सुख जैसा अन्य सुख नहीं है, इसलिए उनके सुख को निरूपम माना गया है। लिंग अर्थात् हेतु से उसका अनुमान भी सम्भव नहीं है। उसकी कोई भी उपमा नहीं है, वस्तुतः मुक्त जीवों का सुख अलिंग है हेतुरहित है, इसलिए वह अनुमेय नहीं है, उपमा रहित होने से है ।' मुक्त जीव का सुख अरिहन्त भगवान को प्रत्यक्ष दिखाई देता है और उनके द्वारा ही उसे बताया जाता है। अज्ञानी लोग उसे नहीं समझ सकते । ' १८३ मोक्षसुख का माहात्म्य बताते समय ऋषि अरिष्टनेमि राजा सगर से कहते हैं - " नृपश्रेष्ठ! मोक्ष का सुख ही वास्तविक सुख है। मूढ़ मनुष्य में उस श्रेष्ठ सुख की कल्पना करने की भी शक्ति नहीं है। मैं सर्वज्ञ हूँ ऐसा अहंकार होने से, वह सुज्ञों द्वारा किए गए उपदेश की अवहेलना कर, धनधान्य के उपार्जन को ही सर्वस्व मानता है । पुत्र और पशु इनमें ही आसक्त रहता है । सुखोपभोग संपादन करने के लिए अधर्म मार्ग का भी अवलंबन करता है। आखिर दुर्लभ मानव जन्म व्यर्थ गंवाता है । जिसकी बुद्धि सुखोपभोग में आसक्त होती है, जिनका मन संसार की प्रवंचनाओं से अशान्त रहता है, ऐसे पुरुष की चिकित्सा करना बड़ा कठिन होता है, क्योंकि मूढ़ मनुष्य स्नेह के बंधनों से स्वयं को बांध लेता है, उसे उनसे स्वतंत्र होने की इच्छा भी नहीं होती। मोक्ष प्राप्त करने की उसकी पात्रता भी नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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