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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
सम्यक्-चारित्र इन तीन पैरों की तिपाई पर आधारित है। इनमें से कोई एक भी पैर नहीं होगा, तो कलश (मोक्षरूपी कलश) असुरक्षित रहेगा।
अग्नि में तीन गुण हैं। प्रकाश देना, जलाना और पाचन करना। अग्नि के समान ही रत्नत्रय में भी तीन आत्मगुण हैं। ज्ञान स्वप्रकाशरूप है। दर्शन मिथ्या-धारणा को और अंधविश्वास को नष्ट करता है। चारित्र ज्ञान को परिपक्व बनाता है। साधक-जीवन में इन तीनों की आवश्यकता है। ज्ञान शक्ति है दर्शन भक्ति है और चारित्र सेवा है। एक है अंजन, दूसरा है मंजन और तीसरा है रंजन। गुरु ज्ञानरूपी अंजन से शिष्य के अज्ञान को दूर करते हैं इसलिए ज्ञान को अंजन कहा है। मंजन दाँतों के मल को दूर करता है। दर्शन रूपी मंजन शंका के मल को दूर करके आत्मा को चमकाता है इसलिए वह मंजन है। रंजन यानी अमोद-प्रमोद। चारित्र यह रंजन है। आत्मा जब सत्व गुण में रमण करता है, तव उसे आनंद आता है, इसलिए रंजन है। ज्ञानरूपी अंजन आत्मा को प्रकाश देता है, दशेनरूपी मंजन आत्मा की चमक बढ़ाता है और चारित्ररूपी रंजन आत्मा को आनंद देता है।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः - इस सूत्र में "मार्गः" एकवचन में है। तीनों से समन्वित मोक्षमार्ग एक ही है यह बताने के लिए यहाँ एकवचन दिया है। इसीलिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक्- चारित्र इन तीनों को मिलकर ही मोक्ष मार्ग बनता है।६३
संपूर्ण कमों के क्षय रूपी मोक्ष की प्राप्ति के अनेक मार्ग नहीं हैं, एक ही मार्ग है और वह है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र रूपी रत्नत्रय का मार्ग। सूत्र के 'मार्गः' के एकवचन में प्रयोग से यही बात सिद्ध होती है।६४
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति के बाद उत्तरोत्तर की प्राप्ति होती है, परंतु यह प्राप्ति विकल्प से होती है। परंतु उत्तर की प्राप्ति के बाद पूर्व का लाभ निश्चित है। उदा. जिसे सम्यक्-चारित्र प्राप्त हुआ, उसे सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-ज्ञान होगा ही, परंतु जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ उसे सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र प्राप्त होगा ही ऐसा नहीं, हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।५५
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इनके ही दूसरे रूप ज्ञान, इच्छा और क्रिया है। सिर्फ ज्ञान, सिर्फ कर्म और सिर्फ भक्ति आत्मा को मोक्ष नहीं दे सकते। निर्वाण की प्राप्ति के लिए, जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है, ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग - इन तीनों का समन्वय होना चाहिए।
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