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जैन दर्शन के नव तत्त्व
शंकराचार्य ने सिर्फ ज्ञान को ही मोक्ष माना है। मीमांसकों ने एकमात्र कर्म को ही स्वर्गप्राप्ति का और निःश्रेयस की सिद्धि का साधन माना है। वैष्णव आचार्यों ने भक्ति को ही मुक्ति का साधन माना है । ६
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भारतीय कर्म - साहित्य में जिस प्रकार कर्मबंध और उसके कारणों का विस्तारपूर्वक निरूपण है, उसी प्रकार उन कर्मों से मुक्त होने के साधन भी प्रतिपादित किए गए हैं। आत्मा हमेशा नवीन कर्मों का बंध करता है और पूर्व बद्ध कर्मों को भोगकर नष्ट करता है। ऐसा कोई भी समय नहीं जिस समय वह कर्मबंध नहीं करता। फिर प्रश्न उपस्थित होता है इक वह कर्म - मुक्त कैसे होगा ? इसका उत्तर ऐसा है कि वह तप और साधना से मुक्त होगा। जैसे खान में होने पर सोना और मिट्टी एकरूप होते हैं, परंतु उष्णता आदि द्वारा जैसे उन्हें अलग-अलग किया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्मों को भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र द्वारा पृथक् किया जाता है। जैन दर्शन ने न तो एकान्त रूप से न्याय-वैशेषिक, सांख्य, वेदांत, महायान (बौद्ध) आदि दर्शनों के समान ज्ञान को प्रमुखता दी है और न एकान्त रूप से मीमांसक दर्शन के समान क्रिया-काण्ड पर ही जोर दिया है। ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय से ही मोक्ष माना है । चारित्रयुक्त अल्पज्ञान भी मोक्ष का हेतु है किंतु चारित्ररहित विशाल ज्ञान भी मोक्ष का कारण नहीं होता है। आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में चारित्रहीन श्रुतवेत्ता चन्दन का बोझा ढोने वाले गधे के समान है, जो बोझ ही ढोता है, चन्दन की सुवास नहीं लेता है ।
सारांश मे सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र और तप इन्हें मोक्ष मार्ग रूप में स्वीकार किया गया है। परंतु यह शाब्दिक अंतर है, वास्तविक नहीं। कहीं दर्शन को ज्ञान के अंतर्गत लेकर ज्ञान और क्रिया को ोक्ष का कारण कहा है, तो कहीं तप को चारित्र के अंतर्गत लेकर, ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है ।
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अन्य दर्शनों में त्रिविध साधना मार्ग :
जैन दर्शन के समान ही बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधना मार्ग का विधान किया गया है। बौद्ध दर्शन का अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधनामार्ग के ही अंतर्गत हैं । बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधनामार्ग के तीन अंग हैं १) शील, २) समाधि और ३) प्रज्ञा ।
वस्तुतः बौद्ध दर्शन का ये त्रिविध साधनामार्ग भी जैन दर्शन के त्रिविध साधनामार्ग के समानार्थक हैं । तुलनात्मक दृष्टि से शील को सम्यक् चारित्र, समाधि को सम्यग्दर्शन और प्रज्ञा को सम्यग्ज्ञान के रूप में माना जा सकता है । सम्यग्दर्शन यह समाधि से इसलिए तुलनीय है कि दोनों में चित्तविकल्प नहीं है।
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