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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
सम्यक् चारित्र :
सम्यकू-चारित्र यह मोक्ष-मार्ग की तीसरी सीढ़ी है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के समान ही सम्यक्-चारित्र भी महत्त्वपूर्ण है। आत्मरवरूप में रमण करना और जिनेश्वर देव के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखना और उसी प्रकार आचरण करना, यही सम्यक्-चारित्र है।
जिस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मोक्ष के साधन हैं, उसी प्रकार सम्यक चारित्र भी मोक्ष का साधन है। चारित्र यानी स्व-स्वरूप में स्थित होना। शुभाशुभ भावों से निवृत्त होकर स्वयं के शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिर रहना, यही सम्यक् चारित्र है। ऐसा चारित्र ज्ञानी को ही होता है, अज्ञानी को नहीं होता। दुःख से मुक्ति की इच्छा हो, तो सम्यक्-चारित्र को स्वीकार करना चाहिए।
मोक्ष का अन्तिम कारण सम्यक्-चारित्र ही है, इसलिए चारित्र धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ चारित्र का अर्थ साम्यभाव है। ऐसे चारित्र से ही कर्म का क्षय होकर शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। चारित्र गुण का पूर्ण विकास मुनि-पद में होता है। इसलिए मुनिपद धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए।५३ ज्ञान यह नेत्र है और चारित्र यह चरण है। रास्ता देख तो लिया, परंतु पैर अगर उस रास्ते पर नहीं चले, तो इच्छित ध्येयों की प्राप्ति असंभव है।
__ "चारित्र के बिना ज्ञान काँच की आँख के समान केवल दिखाने के लिए है। सचमुच वह आँख पूर्णतया निरुपयोगी होती है। ज्ञान का फल विरक्ति है"ज्ञानस्य फलं विरतिः।" ज्ञान प्राप्त होने पर भी अगर विषयों में आसक्ति होगी, तो वह वास्तविक ज्ञान नहीं है।
सम्यक्-चारित्र यह जैन साधना का प्राण है। विभाव में गए हुए आत्मा को पुनः शुद्ध स्वरूप में अधिष्ठित करने के लिए सत्य के परिज्ञान के साथ जागरूक भाव से सक्रिय रहना ही सम्यक् आचार की आराधना है, और यही सम्यक्-चारित्र है।
चारित्र एक ऐसा हीरा है कि जो किसी भी पत्थर को तराश सकता है। जीवन का लक्ष्य सुख नहीं, चारित्र है। उत्तम व्यक्ति मितभाषी होते हैं और आचरण में दृढ़ होते हैं। बौद्ध साहित्य में सम्यकू-चारित्र को ही सम्यक् व्यायाम कहा है।३४
तत्त्व के स्वरूप को जान कर पाप-कर्म से दूर होना, अपनी आत्मा को निर्मल बनाना, यही सम्यक्-चारित्र का असली अर्थ है।५।।
जिस प्रकार अंधे मनुष्य के सामने लाखों-करोड़ों दीपक जलाए रखना व्यर्थ है, उसी प्रकार चारित्र शून्य व्यक्ति का शास्त्राध्ययन व्यर्थ है। समता,
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