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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
अविशेष से देखता है, वही सम्पूर्ण जिन-शासन को देखता है। जो आत्मा को जानता है, वही सब को जानता है और जो सब को जानता है, वह आत्मा को जानता है।
तत्त्व जैसे हैं, उनके निज स्वरूप का संक्षेपतः या विस्तार से होने वाले यथार्थ अर्थबोध (ज्ञान) है, उसी को विद्वान 'सम्यग्ज्ञान' कहते है। जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस प्रकार से उन्हें जानना 'सम्यग्ज्ञान' है।० दूरारे शब्दों में नय और प्रमाण द्वारा जीवादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' है। वस्तुतः जीवादि पदार्थों के ज्ञान का ज्ञानस्वभावरूप परिणमन 'सम्यग्ज्ञान'१२२ है।
जो ज्ञान वस्तु के स्वाभाविक रूप को न्यूनता, अधिकता और विपरीतता से रहित जैसा है वैसा ही सन्देहरहित जानता है, उसे आगमज्ञाता 'सम्यग्ज्ञान' कहते है। यथार्थ में सत् और असत् पदार्थ का यथातथ्य ज्ञान कराने वाला ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' है।१२३
जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिससे मन का व्यापार रूक जाता है, जिससे आत्मा विशुद्ध होता है, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहा है। जिससे राग से विरक्ति, श्रेयमार्ग में अनुरक्ति, प्राणिमात्र के साथ मित्रता हो, वही जिनदेव के मतानुसार 'ज्ञान' है।
जो आत्मा गुरूपदेश से अथवा शास्त्राभ्यास से अथवा स्वात्मानुभव से स्व-पर के भेद को जानता है, वही मोक्षसुख को जान सकता है।
वैदिक दार्शनिकों ने भी सम्यग्ज्ञान को महत्त्व दिया है और उसे "ब्रह्मविद्या" कहा है। आध्यात्मविद्या में ही सब विद्याओं की प्रतिष्ठा है। वही सब में प्रमुख है।२४
वही सब विद्याओं को दीपक के समान प्रकाश देनेवाली है और परिपूर्णता प्राप्त करानेवाली है। वही सबसे उत्कृष्ट धर्म है और ज्ञानों में श्रेष्ठतम है। इस एक ही विद्या का परिज्ञान हो जाने पर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रहता। इस आत्मविद्या के द्वारा राग-द्वेष नष्ट होते हैं और यही सर्वोत्तम राजविद्या है।
न्यायदर्शन मिथ्याज्ञान और मोह आदि को संसार का मूल कारण मानता है। सांख्यदर्शन विपर्यय को संसार का मूल कारण मानता है। बौद्धदर्शन, राग-द्वेष जन्य अविद्या को संसार का मूल कारण मानता है। जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से साधना के क्षेत्र में सम्यग्ज्ञान का महत्त्व सम्यग्दर्शन जितना ही है। इसलिए ज्ञान सर्वप्रकाशक है, ऐसा कहा जाता है। प्रथम ज्ञान और उसके बाद में चारित्र का क्रम है, ऐसा जैन शास्त्रों में माना गया है।
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