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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जैन शास्त्रों में दया का अतीव महत्त्व है। फिर भी ज्ञान को प्रथम स्थान दिया है। दशवैकालिक अध्याय ४ में कहा है - "पढमं णाणं तओ दया"। प्रथम ज्ञान और बाद में दया।२५ सम्यग्ज्ञान के भेद :
____ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान- यह पाँच प्रकार का ज्ञान है। १) मतिज्ञान : जो इन्द्रियाँ की सहायता से पदार्थों को जानता है, उसे
"मतिज्ञान" कहते हैं। २) श्रुतज्ञान : मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थों के अवलंबन से उन्हीं पदाथों को
विशेष स्वरूप से जानना अथवा अन्य पदार्थों के स्वरूप को
जानना - इसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। ३) अवधिज्ञान : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनकी विशिष्ट मर्यादा में जो रूपी
पदार्थों को आत्मिक शक्ति से इन्द्रियाँ और मन के अवलंबन
के बिना स्पष्टतया जानता है, उसे 'अवधिज्ञान' कहते हैं। ४) मनःपर्ययज्ञानः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनकी विशिष्ट मर्यादा में दूसरों के
मन के सरल अथवा वक्र विचारों को, साथ ही तत्संबंधी रूपी पदार्थों को जो आत्मिक शक्ति से इन्द्रियों और मन के अवलंबन के बिना स्पष्ट रूप से जानता है, उसे 'मनःपर्यय
ज्ञान' कहते हैं। ५) केवल ज्ञान : जो संपूर्ण लोक के सारे द्रव्यों को, उनके त्रिकालवी संपूर्ण
पर्यायों के साथ एक ही समय में, आत्मिक शक्ति से अत्यंत स्पष्ट रूप से जानता है, उसे "केवलज्ञान" कहते है।२६
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में विशेष अंतर यह है कि “यह गागर है" ऐसा जानना यह 'मतिज्ञान' है। इसके बाद 'गागर का उपयोग पानी भरने के लिए होता है', 'यह ताबें पीतल आदि से बनती है', 'अमुक कीमत में मिलती है। - आदि रूप ज्ञान 'श्रुतज्ञान' है। ज्ञान प्राप्त करने के दो साधन हैं - १) परोक्ष
२) प्रत्यक्ष । १) परोक्ष : बुद्धि आदि तत्त्वों की सहायता से जो ज्ञान पदार्थ को अस्पष्ट रूप मे जानता है, वह परोक्ष प्रमाण है। २) प्रत्यक्ष : जो ज्ञान बुद्धि, तर्क आदि अन्य साधनों की सहायता के इवना आत्मिक शक्ति से ही वस्तु के स्वरूप को अत्यंत स्पष्टता से या निर्मल रूप से जानता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है।
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