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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
सयोगीकेवली जब स्वदेह से मुक्ति प्राप्त करने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक वाचिक और कायिक व्यापारों को रोकता है, तब वह आध्यात्मिक विकास की अन्तिम चौदहवीं अवस्था में पहुँचता है। इस भूमिका को अयोगीकेवली कहा जाता है। इसमें आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरू पर्वत के समान निष्कंप स्थिति प्राप्त कर, अंत में देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को पहुँचता है। इसी सिद्धावस्था का नाम परमात्मपद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण है। यह आत्मा की सर्वागीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता और परमपुरुषार्थ की सूचक है। इस स्थिति में आत्मा की आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति होती है और उसे अनंत, अव्यावाध. अलौकिक सुख प्राप्त होता है।
इस प्रकार मोक्ष या निर्वाण की अवस्था में सारे बंधन नष्ट हो जाते हैं। दैहिक, वाचिक और मानसिक सारे दोष निःशेष हो जाते हैं। समग्र वासनाओं और क्लेशों की निरवशेष शान्ति ही निर्वाण का परम लक्ष्य है।* मोक्ष या 'निर्वाण' श्रमण संस्कृति का अद्भुत और अनुपम आविष्कार है। भारतीय महर्षियों ने साधना के इस चरम बिन्दु को 'निर्वाण' या मुक्ति के रूप में अभिव्यक्त किया है।
जैन दर्शन के अनुसार लोकाग्र पर एक ऐसा ध्रुवस्थान है, जहाँ जरा-मृत्यु, आधि-व्याधि और वेदना आदि कुछ नहीं है। उसके निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धपद, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध जैसे अनेक नाम हैं। ऐसा स्थान प्राप्त करने के लिए साधक साधना करते हैं।" जन्म मरण का अन्त करने वाले मुनि जिस 'मोक्ष' स्थान को प्राप्त कर शोक-चिन्ता से मुक्त होते हैं ऐसा 'मोक्षस्थान' लोकाग्र पर स्थित है। साधना के बिना वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है।२६ सब दुःखों से मुक्त होने के लिए साधक संयम और तप द्वारा पूर्व कमों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं।
मोक्ष-मीमांसा विविध दार्शनिक ग्रंथों और शास्त्रों में निर्वाण को ही मुक्ति, मोक्ष, सिद्धि, परमात्मलीनता, अनंत की प्राप्ति, अहंशून्यता आदि विविध नामों से निर्देशित किया गया है।
_ 'निर्वाण' का शब्दशः अर्थ जिसमें से वायु (वात) निकल गई है। जिस प्रकार आक्सीजन नामक वायु के अभाव में दीप का बुझ जाना यानी दीप का निर्वाण है, उसी प्रकार आत्मा के विकारों का समाप्त हो जाना ही आत्मा का निर्वाण है। अगर दीप पर किसी ने फूंक मारी, तो दीप की ज्योति बुझ जाती है? वह कहाँ जाती है? वस्तुतः वह ज्योति विराट में से आई थी और विराट में ही विलीन हो गई।
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