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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
४) सूत्ररुचि : अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य सूत्रों का अवगाहन करके
सम्यक्त्व की प्राप्ति करने को "सूत्ररुचि" कहते हैं। ५) बीजरुचिः पानी में तेल की बूँद की तरह अनेक पदों में व्यापने वाले
सम्यक्त्व को 'बीजरुचि' कहते हैं। ६) अभिगमरुचिः ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान के ग्रन्थों
के अर्थ को समझकर सम्यक्त्व प्राप्त करने को
'अभिगमरुचि' कहा जाता है। ७) विस्ताइरुचिः समस्त प्रमाणों और नयों द्वारा द्रव्य की सभी अवस्थाओं
को जानना यह 'विस्ताररुचि' हैं। ८) क्रियारुचिः दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, समिति, गुप्ति आदि
क्रियाओं में होनेवाली भावयुक्त रुचि को 'क्रियारुचि' कहते
८) संक्षेपरुचिः थोड़े से ज्ञान से ही सम्यक्त्व प्राप्त होना इसे 'संक्षेपरुचि'
कहते हैं। निग्रंथ प्रवचन में अकुशल होना और मिथ्या प्रवचन से तनभिज्ञ होना, परंतु कुदृष्टि का आग्रह न होने
से अल्पबोध की तत्त्वश्रद्धा 'संक्षेपरुचि' है। १०) धर्मरुचि : जिनकथित अस्तिकाय धर्म, (धर्मास्तिकाय आदि अस्तिकायों
के गुणस्वभावादि धर्म) श्रुतधर्म और चारित्रधर्म इनपर
श्रद्धा रखना 'धर्मरुचि' है। परमार्थ को जानना, परमार्थ के तत्त्वद्रष्टा की सेवा करना, व्यापन्नदर्शनी (सम्यक्त्व से भ्रष्ट) और कुदर्शनी (मिथ्यात्वी) इनसे दूर रहना, यही सम्यक्त्व में श्रद्धा रखना है। चारित्र सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकता, परंतु सम्यक्त्व चारित्र के बिना हो सकता है। सम्यक्त्व और चारित्र दोनों एकत्रित भी हो सकते हैं। चारित्र के पूर्व सम्यक्त्व की आवश्यकता होती है। ज्ञान सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकता। ज्ञान के बिना चारित्र और सद्गुणों के अभाव में मोक्ष (कर्मक्षय) प्राप्त नहीं हो सकता और मोक्ष के बिना निर्वाण की (अनंत चिदानंद स्वरूप की) प्राप्ति नहीं होती। सम्यक्त्व के दोष :
सम्यक्त्व के गुण और दोष भी हैं। उन दोषों के पाँच भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. मिथ्यादृष्टि प्रशंसा, और ५. मिथ्यादृष्टि संस्तव। १) शंका - वीतराग भगवान के उपदेशों में शंका होना। २) कांक्षा - राग-द्वेष से युक्त अन्य मतों की आकांक्षा करना।
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