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सम्यग्यदर्शन यह किसी भी जाति या समाज के व्यक्ति को प्राप्त हो सकता है। जिसका हृदय सरल, पवित्र और समभाव से युक्त है, उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है।
सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं १) सराग सम्यग्दर्शन
जो सम्यग्दर्शन होता है, २) वीतराग सम्यग्दर्शन 'वीतराग सम्यग्दर्शन' है।७
२) संवेग :
३) निर्वेद :
४) अनुकंपा :
५) आस्तिक्य
१) सराग सम्यग्दर्शन और २ ) वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य के रूप से वह 'सराग सम्यग्दर्शन' है ।
केवल आत्मविशुद्धिरूप रूप जो सम्यग्दर्शन होता है वह
जैन दर्शन के नव तत्त्व
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सात प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय होने पर जो आत्मविशुद्धि प्रकट होती. है, वह वीतराग सम्यक्त्व है। सराग सम्यग्दर्शन अनुमानगम्य है और वीतराग सम्यग्दर्शन स्वानुभवगम्य है।
सम्यग्दर्शन के दो भेदों में से सराग सम्यग्दर्शन के निम्नलिखित भेद हैं१) प्रशम : राग, द्वेष, क्रोध, आदि कषायों को उत्पन्न न होने देना या जागृत न होने देना और उन्हें जीतने का प्रयत्न करना 'प्रथम' है ।
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जन्म, जरा, मृत्यु आदि अनेक दुःखों से व्याप्त संसार के कारण भूत कर्मों का बंध न होने देना संवेग है ।
संसार, शरीर और भोग इन तीन बातों से उपरत होना और उनके त्याग की भावना होना निर्वेद है ।
संसार के सब प्राणियों पर दया करना और सब संसारी जीवों को अभयदान देने की भावना रखना अनुकम्पा है 1 अरिहन्त देव ने जीव आदि नव पदार्थों का जो स्वरूप बताया है उसे मान्य करना और उन पदार्थों को अपने-अपने स्वरूप के अनुसार जानना आस्तिक्य है।
प्रशस्त राग सहित जीव का सम्यक्त्व ' सराग सम्यग्दर्शन' है और प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों प्रकार के रागरहित क्षीणमोह वीतराग का सम्यग्दर्शन 'वीतराग सम्यग्दर्शन' है।
सम्यक्-दर्शन :
मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का प्रथम तथा अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि सम्यक् दर्शन के बिना आगमज्ञान, चारित्र, व्रत, तप आदि सब व्यर्थ हैं 1
रत्नत्रय में भी सम्यक् दर्शन अतीव महत्त्वपूर्ण है । सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का मूल है। जहाँ सम्यग्दर्शन नहीं है, वहाँ ज्ञान और चारित्र दोनों मिथ्या हैं । प्रत्येक आत्मा में ज्ञान तो होता ही है, परंतु जव
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