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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जैन दर्शन में कहना है कि दीप का बुझ जाना उसकी ज्योति का नष्ट होना नहीं है, परन्तु उसका रूपान्तर या परिणामान्तर होना है। क्योंकि जो है वह नष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीव का निर्वाण होना, उसका अस्तित्वहीन होना नहीं हैं, परंतु अव्याबाध स्वभाव-परिणति को प्राप्त करना है। वैदिक परिभाषा में ऐसा कहा जाएगा कि- आत्मा का अहं, ममत्व, देह आदि सब छोड़कर विराट में यानी परमात्मा में मिल जाना ही उसका निर्वाण है।
जब आत्मा विराट में मिल जाता है, तब जीवन में कोई भी शेष विकार नहीं रहते। ऐसे विलीन होने को नाश नहीं कहा जा सकता, यह तो आत्मा का अपने विराट शुद्ध स्वरूप में लीन होना है।
आचारांगसूत्र में निर्वाण का अर्थ 'स्वस्वरूप में स्थित होना' ऐसा है।३१ इसके लिए आत्मा का विकार, आवरण और उपाधि इनसे रहित होना अत्यफत आवश्यक है। जैन दर्शन में निर्वाण का यही अर्थ किया गया है।३२ सब कर्मविकारों से रहित होना।२ सब संतापों से रहित होकर आत्यंतिक सुख प्राप्त करना, सब द्वंद्वों से रहित होना, यही निर्वाण है; क्योंकि जब तक आत्मा में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार, माया आदि विकार हैं, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं होता। निर्वाण के लिए जैन दर्शन की पहली शर्त है- सब कमों का क्षय होना।५ राग, द्वेषादि से क्षय से कमों का क्षय होता है। सब कमों का क्षय होने पर२६ आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होता है और परम शांति प्राप्त करता है। पुनः पुनर्जन्म नहीं होता। नाम, रूप, आकार, साथ ही शरीरजनित सुख-दुःख, राग, द्वेष, मोह, अहंकार, जन्म-मरण, जरा, व्याधि, भूख, प्यास, निद्रा, ठंड, उष्णता आदि भी नहीं होते।
जब शरीर हमेशा के लिए नष्ट होता है, तब शरीर के कारण होने वाले, मैं, मेरा, रागद्वेष, आदि विकार अपने आप क्षय हो जाते हैं। सभी व्याधियाँ शरीर के 'मैं' के निकट जमा होती हैं, इसलिए जो सर्वया अशरीरी होता है, वह सब व्याधियों से मुक्त हो जाता हैं। जहाँ जन्म-मरण नहीं होता, वहाँ आवागमन भी नहीं होता। इसलिए वीतराग पुरुष राग-द्वेष को ही समाप्त करके परमात्म पद की प्राप्ति करते हैं और निर्वाण को प्राप्त होते हैं। “सिद्धगति" नामक स्थान में अपने आत्मस्वरूप में हमेशा के लिए स्थित होते हैं। वहाँ से वापिस आना नहीं होता२ , वहाँ की स्थिति शिव३ (निरूपद्रव), अचल, अनंत, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति की है। निरूपद्रव इसलिए कहा है कि शरीर के कारण ही सब उपद्रव होते हैं। शरीर ही वहाँ नहीं इसलिए उपद्रव भी नहीं, अचल-अवस्था यह मौन और शांति की सूचक है। जहाँ शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि होते हैं, वहाँ हलचल होती है, संघर्ष होता है। जहाँ ये सारे मूर्त पदार्थ नहीं हैं,
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