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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
१०) परिताप नहीं देने से।
__ ऊपर लिखे दस कारणों से बंधे हुए सातावेदनीय कर्मों का शुभ फल इस . प्रकार मिलता है - मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गंध, मनोज्ञ स्पर्श की प्राप्ति होना, मन में खुशी होना, वाणी मधुर होना, काया निरोगी और सुंदर प्राप्त होना- ऐसे शुभ फल मिलते हैं। असातावेदनीय कर्म का बंध बारह प्रकारों से होता है -
१) परदुक्खणाए, २) परसोयणयाए, ३) परझूरणाए, ४) परतिप्पणयाए, ५) परपिट्टणयाए, ६) परपरियावणयाए, ७) बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, ८) सोयणयाए, ६) झूरणयाए, १०) तिप्पणयाए, ११) पिट्टणयाए, १२) परियावणयाए अर्थात प्राणी, भूत जीव और सत्व को दुःख देना, उन्हें शोक उत्पन्न करना, रूलाना, झुराना, परिताप देना, मारना- ये छह कार्य सामान्य रूप से किए हों और ये ही छह कार्य विशेष रूप से किए हो तो इन बारह प्रकारों से असातावेदनीय कमों का बंध होता है। असातावेदनीय कमों के अशुभ फल आठ प्रकार से भोगे जाते हैं। उसमें ये परिणाम प्राप्त होते हैं - १) अमनोज्ञ शब्द, २) अमनोज्ञ रूप, ३) अमनोज्ञ गंध, ४) अमनोज्ञ रस, ५) अमनोज्ञ स्पर्श, ६) मन का उदास रहना, ७) वचन का कर्कश होना, ८) शरीर रोगी और कुरूप होना - ये आठ प्रकार सातावेदनीय के उदय के विपरीत हैं।२ ४) मोहनीय कर्म : सम्यक्त्व और चारित्र गुणों का घात करने वाला कर्म 'मोहनीय कर्म' है। मोहनीय का स्वभाव मदिरा जैसा है। जिस प्रकार मदिरा जीव को बेमान कर देती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म जीव के विवेक को नष्ट कर देता है। मोहनीय कर्म निम्न छह कारणों से बांधा जाता है -
१) तीव्र क्रोध, २) तीव्र मान, ३) तीव्र माया, ४) तीव्र लोभ, ५) तीव्र दर्शनमोहनीय - धर्म के नाम पर अधर्म का आचरण करना और ६) तीव्र चारित्रमोहनीय - चारित्रवान के जैसा वेश धारण करके चारित्रहीन के समान आचरण करना। मोहनीय कर्म पाँच प्रकारों से भोगा जाता है :
सम्यक्त्वमोहनीय अर्थात् सम्यक्त्व की मलिनता होना, मिथ्यात्व की तीव्रता होना, सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) प्राप्त होना, कषाय वेदनीय (कषाय चारित्रमोहनीय) अर्थात क्रोध आदि चार कषाययुक्त होना या अंनतानुबंधी आदि सोलह कषायों से युक्त होना।
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