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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
अकाम-निर्जरा अर्थात् परवश होकर दुःख सहन करना, परंतु समभाव रखना।
इस प्रकार सोलह कारणों से चार आयुओं का बंध होता है। उसका फल है उन आयुओं की प्राप्ति होना है। ६) नामकर्म : जिस कर्म से जीव के शरीर की निर्मिति होती है, वह 'नाम-कर्म' है। जिससे विशिष्ट गति, जाति आदि की प्राप्ति होती है, उसे 'नाम-कर्म' कहते हैं। नाम-कर्म का स्वभाव चित्रकार जैसा है। जिस प्रकार चित्रकार अनेक आकार बनाता है, उसी प्रकार यह कर्म मनुष्य, तिर्यंच आदि के शरीर बनाता है। नाम-कर्म के दो भेद हैं - १) शुभ नामकर्म और २) अशुभ नामकर्म १) शुभ नामकर्म : शुभ नामकर्म का बंध चार प्रकार से होता है - १) काया की सरलता स २) भाषा की सरलता से ३) मन की सरलता से ४) विसंवाद - झगड़े से दूर रहकर प्रवृत्ति करने से शुभ नाम कर्म का फल निम्नलिखित चौदह प्रकार से मिलता है।
१) इष्ट शब्द, २) इष्ट रूप, ३) इष्ट गंध, ४) इष्ट रस, ५) इष्ट स्पर्श, ६) मनोज्ञ गति, ७) सुखद आयुष्य, ८) मनोज्ञ लावण्य-सौंदर्य, ६) इष्ट यशोकीर्ति, १०) इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम - (किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए तत्पर होना उत्थान है। उसे लेने के लिए जाना कर्म है। उस वस्तु को लेना बल है। उसे लेकर ठीक तरह से धारण करना यह वीर्य है। उसे योग्य स्थान पर पहुँचाना यह पराक्रम है, पुरुषार्थ है।), ११) मधुर स्वर, १२) वल्लभ-कान्त स्वर, १३) प्रिय स्वर और १४) मनोज्ञ स्वर।
इस प्रकार शुभ नाम कर्म के उदय से चीव को इन चौदह प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। २) अशुभ नामकर्म : यह कर्म चार प्रकार से बांधा जाता है - १) काया की वक्रता - शरीर द्वारा किसी का बुरा करना। २) भाषा की वक्रता
वचन द्वारा किसी का बुरा करना। ३) मन की वक्रता
मन द्वारा किसी का बुरा चिन्तन करना। ४) विसंवाद करने से
झगड़ा करने से। अशुभ नाम-कर्म का फल नीचे लिखे चौदह प्रकारों से भोगना पड़ता है। १) अनिष्ट शब्द, २) अनिष्ट रूप, ३) अनिष्ट गंध, ४) अनिष्ट रस, ५) अनिष्ट स्पर्श, ६) अनिष्ट गति-चाल, ७) अनिष्ट स्थिति, ८) अनिष्ट लावण्य-कुरूपता, ६)
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