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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
५) नोकषाय वेदनीय (नोकषाय चारित्रमोहनीय) अर्थात् हास्य आदि नौ
नोकषाययुक्त होना।
इस प्रकार पाँच प्रकार से अथवा विस्तार से कहने पर तीन दर्शन-मोहनीय, नौ नोकषायमोहनीय और सोलह कषाय-मोहनीय, इस प्रकार अट्ठाईस प्रकार से मोहनीय कर्म का फल भोगा जाता हैं।" ५) आयुकर्म : जो कर्म जीव को किसी गति विशेष में शरीर विशेष से बांधे रखता है, उसे आयु कर्म कहते हैं। जिससे भव धारणा होती है अर्थात् जन्म होता है, वह आयु कर्म है। आयु कर्म का स्वभाव हथकड़ी के समान है। जिस प्रकार हथकड़ियाँ सजा की अवधि तक बांधे हुए रखती है, उसी प्रकार आयु कर्म भी आयु की समाप्ति तक जीव को शरीर विशेष से बांध कर रखता है। आयु कर्म के चार भेद हैं - १) नरकायु, २) तिर्यचायु, ३) मनुष्यायु और, ४) देवायु।'६ इनमें से नरकायु कर्म का बंध निम्नलिखित चार कारणों से होता है - १) महारंभ करने से अर्थात् जिसमें षट्काय जीवों की हमेशा हिंसा होती है
ऐसा कार्य करने से, महा-परिग्रह अर्थात् प्रबल लालसा अथवा तृष्णा रखने से,
मद्य-मांस का सेवन करने से, ४) पंचेन्द्रिय जीवों का घात करने से। तिर्यंचायु कर्म का बंध इन चार कारणों से होता है - १) कपटसहित झूठ बोलने से। २) अति दगाबाजी करने से। ३) असत्य भाषण करने से।
झूठा नाप तौल करने से। मनुष्य की आयु चार कारणों से बांधी जाती है - १) स्वभाव की सरलता, निष्कपटता, ऋजुता होना। २) स्वभाव में विनयशीलता होना, ३) जीवदया करना।
ईर्ष्या, द्वेष आदि से रहित होना। देवों की आयु भी चार कारणों से बांधी जाती है - १) संयम का पालन करना, परंतु शरीर और शिष्य के प्रति ममत्व रखना। २) श्रावक के व्रतों का पालन करना। ३) बालतप अर्थात् ज्ञानहीन तप करना।
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