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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
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अन्तराय कर्म पाँच प्रकार से बांधा जाता है१. कोई दान देता हो, तो उसे देने न देना,
किसी के लाभ में विध्न पैदा करना, खाने-पीने आदि वस्तुओं के भोग में विध्न पैदा करना, वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुओं के उपभोग में विध्न पैदा करना, वीर्यान्तराय - किसी को धर्मध्यान न करने देना अथवा संयम
न लेने देना। इन पाँच कारणों से बंधे हुए अन्तराय कर्म का अशुभ फल उनके बंध के अनुसार ही पाँच प्रकार से भोगना पड़ता है। यथा - १. दानान्तराय - दान देने में विघ्न उपस्थित करने पर दान नहीं दिया
जा सकता। २. लाभान्तराय - लाभ में विघ्न करने से लाभ की प्राप्ति नहीं हो
पाती। ३. भोगान्तराय - भोग में विघ्न लाने से भोग की प्राप्ति नहीं होने
पाती। ४. उपभोगान्तराय - उपभोग में विघ्न लाने से उपभोग की प्राप्ति नहीं होने ।
पाती। ५. वीर्यान्तराय - धर्मध्यान, तप आदि में विघ्न डालने से उनमें बाधा
आती है।६७ ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस, आयु-कर्म के चार, नाम-कर्म के बयालीस, गोत्र के दो, और अन्तराय के पाँच ऐसे इनके उत्तरभेद हैं।
इस प्रकार आठ प्रकार के कमों के बंध के कारण का और उनके फल का विवेचन हुआ। इनका विवेकपूर्वक विचार करके, कर्म का बंध नहीं हो इस रीति से व्यवहार करना चाहिए। जिस व्यक्ति में इतनी शक्ति नहीं उसे कम से कम अशुभ कर्म से तो दूर रहना चाहिए।
ये बांधे हुए कर्म निश्चित रूप से उदय में आते हैं। वे उदय में आए बिना नहीं रह सकते, और उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। उदय में
आकर फल देने के बाद कर्म निर्जीण होकर अपने आप आत्म-प्रदेश से दूर हो जाते है। जब तक फल देने का काल नहीं आता, तब तक बांधे हुए कर्म के फल का अनुभव नहीं होता है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के परिणामस्वरूप मोह होता है, दूसरे मोह का कारण सुखद-दुःखद संवेदन भी है। इसलिए वे मोहनीय के पूर्व रखे गये। उसके बाद आयुष्य कर्म आता है। आयुष्य कर्म शरीर के सिवाय भोगा
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