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जैन दर्शन के नव तत्त्व
तब कुछ भी करना बाकी नहीं रहता । संक्षेप में 'बंधप्पमोक्खो' - कर्मबंधन से मुक्त होना यही नवतत्त्वों से बोध का उद्देश्य है ।
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संवर द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाने पर और निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध सब कर्मों के क्षीण हो जाने पर आत्मा को पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त होती है । जब कर्म नहीं रहते है, तब कर्म के निमित्त से होने वाली व्याधि और उपाधि भी नहीं रहती और जीव अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यही जैन धर्म सम्मत 'मोक्ष' है ।
मुक्त दशा में आत्मा अशरीर, अतीन्द्रिय, अनन्त, चैतन्ययुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनंत आत्मिक वीर्य से समृद्ध होता है ।
विकार ही विकार को उत्पन्न करते हैं। जो आत्मा सर्वथा निर्विकार हों जाती है, वह पुनः कभी विकारमय नहीं होती । वह आस्रव और बंध के कारणों से हमेशा के लिए मुक्त हो जाती है। इसी कारण से मुक्त दशा शाश्वत है। मुक्तात्मा पुनः कभी संसार में अवतीर्ण नहीं होती। वह जन्म मरण से पूर्णतः निवृत्त होती
बंध तत्त्व के चार प्रकारों को और कर्मबंध के स्वरूप को समझकर आत्मा को विचार करना चाहिए कि इन चार प्रकारों के कर्मबंध के कारण मैं अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ और अनेक कष्ट सहन किए हैं। अब भी यदि कर्म-बंधन का त्याग नहीं किया, तो भविष्य में भी संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा ।
बंध चार प्रकार के है* प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध । यही दुःख का मूल कारण है । यही जीव और कर्म का संबंध स्थापित कर जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाला है और उसके ज्ञानादि गुणों को आवृत्त करने वाला है। आत्मा के अनंत गुण प्रकट करने के लिए और कर्मों को नष्ट करने के लिए कर्मबंधन के जो कारण हैं, उनका त्याग करना चाहिए ।
बंध का स्वरूप और आत्मा का स्वरूप अलग-अलग हैं। सारे कर्मों को नष्ट करके मोक्ष पद प्राप्त करना है, इसीलिए बंध तत्त्व का यथार्थ स्वरूप जानना चाहिए।
जैन सिद्धान्त के अनुसार आत्मा पर से कर्मों का आवरण दूर होने पर ही उसे सिद्धावस्था प्राप्त होती है और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिलती है ।
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