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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
बंध मोक्ष चर्चा :
, भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा है जिसने बंध-मोक्ष को स्वीकार नहीं किया है। अन्य सब दर्शनों ने बंध-मोक्ष को स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन ने बंध-मोक्ष को तो माना ही है, परन्तु पुरुष के स्थान पर उन्होंने बंधमोक्ष को प्रकृति में माना है। यह केवल परिभाषा का फर्क है। क्योंकि सांख्यमत मानता है कि पुरुष और प्रकृति का विवेक होना ही मोक्ष है।
जीव के बंधन और मोक्ष के संबंध में उपनिषदों में बहुत लिखा गया है।' उपनिषदों के अनुसार बंध का कारण अविद्या और मोक्ष का कारण विद्या है। अविद्या में नित्य और अनित्य ऐसा फर्क नहीं है। उसमें अहंकार होता है। विषयी और विषय के भेद का जो बौद्धिक ज्ञान है वह देश, काल और कार्यकारण संबंधी ज्ञान है।
अविद्या के कारण जन्म-मरण होता है। अविद्या के कारण ही जीव को दुःख और क्लेश होते हैं। इस संसार की एकता में जो अनेकता दिखाई देता है, उसका मूल कारण अविद्या और माया ही है।
उपनिषदों के अनुसार यह दृश्यमान समग्र प्रपंच अविद्या तथा माया से ही उत्पन्न हुआ है। जब तक माया और अविद्या है, तब तक यह जगत् और संसार हैं और तब तक ही दुःख और क्लेश भी हैं। अविद्या के कारण ही अहंकार होता है। वास्तव में यह अहंकार ही बंधन का कारण है। इस अहंकार के कारण ही जीव इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और शरीर के साथ अपना तादात्म्य मानने लगा है।
इसके विरुद्ध उपनिषदों में मोक्ष का कारण विद्या माना गया है। अहंकार से छूटकर विद्या द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर आत्मा में लीन होना ही सब बंधनों से मुक्ति है।
उपनिषदों में कहा है कि ब्रह्मज्ञान से मोक्ष मिलता है। ब्रह्मज्ञान का अर्थ है ब्रह्मभावना। ब्रह्म अर्थात् विशुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन अर्थात् प्रत्येक प्राणी में आत्मा देखना, सबमें ब्रह्म देखना, स्वयं को सबमें देखना। इसका अर्थ यह कि सब में एक आत्मा देखना। उपनिषदों के अनुसार एकात्म दर्शन ही सर्वात्मदर्शन
इस स्थिति में जीवात्मा का परमात्मा के साथ एकत्व निर्माण होता है। जीव की इस स्थिति को आत्मक्रीड़ा, आत्मरति और आत्ममैथुन कहा जाता है। उपनिषदों के अनुसार यही परमपद है यही अमृतपद है और यही मोक्ष है।
आत्मलाभ के लिए (Self-realization) पराविद्या आवश्यक है। इस पराविद्या से ही ब्रह्म साक्षात्कार या आत्म साक्षात्कार होता है। उपनिषदों में अविद्या
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