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जैन दर्शन के नव तत्त्व
करता है तथा ध्यान, समाधि आदि में लीन होकर शरीर का त्याग करने के लिए तैयार होता है ।
व्युत्सर्ग- तप में सब से प्रधान तप कायोत्सर्ग है । शास्त्रों में भी कायोत्सर्ग को ही व्युत्सर्ग कहा गया है। जो साधक कायोत्सर्ग में सिद्ध हो जाता है, वह संपूर्ण व्युत्सर्ग- तप में सिद्ध हो जाता है, ऐसा समझना चाहिए ।
(१२) ध्यान- तप :
अभ्यन्तर तप का यह छठा अत्यंत महत्त्वपूर्ण भेद है । मन को एक विषय पर एकाग्र करना अर्थात् केन्द्रित करना 'ध्यान' है । वह गतिशील है । मन कभी शुभ विचार करता है, तो कभी अशुभ विचार करता है। मन के इस प्रकार के प्रवाह को अशुभ विचारों से परावृत्त करके, शुभ विचार पर केन्द्रित करना 'ध्यान' कहलाता है। ध्यान से आत्मबल बढ़ता है और मन समाधिस्थ होता है । चित्त - विक्षेप का त्याग करके आत्म-स्वरूप में लीन होना 'ध्यान' कहलाता है । ध्यान के विषय में कहा गया है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना, भी 'ध्यान' है। ध्यान के चार प्रकार हैं (१) आर्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और ( ४ ) शुक्लध्यान ।
अनात्माभिमुख एकाग्रता आर्त और रौद्र ध्यान है और आत्माभिमुख एकाग्रता धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान है। आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं इसलिए वे हेय ( त्याज्य ) हैं किन्तु धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं इसलिए वे उपादेय (ग्राह्य) हैं । ३
जो कोई सिद्ध हुए हैं, सिद्ध हो रहे हैं और सिद्ध होंगे, उनकी सिद्धि का कारण शुभ ध्यान ही है । ४
मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। विचारकों ने मन के निम्नांकित भेद बताये हैं- (१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन और (४) सुलीन
मन ।
(१) विक्षिप्त मन कुछ लोगों का मन पागलों के समान यहाँ-वहाँ भटकता रहता है, उसे विक्षिप्त मन कहते हैं ।
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(२) यातायात मन - कुछ लोगों का मन विषय की आसक्ति के कारण, यहाँ-वहाँ, दौड़ते समय कभी स्थिर होता है, तो कभी चंचल होता है । उसे 'यातायात मन' कहते हैं ।
(३) श्लिष्ट मन विषय से परावृत्त होकर मन कभी-कभी थोड़ा स्थिर हो भी जाता है, परन्तु उसमें शान्ति नहीं होती । यह 'श्लिष्ट मन' है ।
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(४) सुलीन मन- जो मन परमात्मा की भक्ति में, आत्म-चिन्तन में और सत् शास्त्रों के साध्याय - मनन में निर्मल और स्थिर बनता है, वह 'सुलीन मन' है । ऐसा मन ही वास्तव में ध्यान का अधिकारी बन सकता है 1
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