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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार : पृथक्त्व अर्थात् भेद एवं विर्तक अर्थात् तर्कप्रधान चिन्तन। इस ध्यान में वस्तु के विविध प्रकारों पर सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन किया जाता है। (२) एकत्व-वितर्क-सविचार : जब भेदप्रधान चिन्तन में मन स्थिर हो जाता है, तब अभेदप्रधान चिन्तन में स्वयंस्थिरत्व प्राप्त हो जाता है। इस ध्यान में वस्तु के एक रूप को ही ध्येय बनाया जाता है। यह ध्यान सर्वथा निर्विचार ध्यान नहीं है। (३) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति : यह ध्यान अत्यन्त सूक्ष्म क्रिया पर किया जाता है। इस ध्यान की स्थिति प्राप्त होने पर योगी पुनः ध्यान से विचलित नहीं होता। इसलिए इस ध्यान को सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहा गया है। जैनागम में कहा गया है कि यह ध्यान केवली-वीतराग आत्मा को ही होता है। (४) समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति : इस ध्यान में आत्मा सब योगों का निरोध करता है। आत्मप्रदेश निष्कंप बनते हैं। संपूर्ण योग-चंचलता समाप्त हो जाती है। आत्मा अयोग केवली बनता है। यह अनिवृत्ति शुक्ल ध्यान है।६५ इस ध्यान के प्रभाव से आत्मा में बचे हुए शेष चार कर्म भी शीघ्र क्षीण हो जाते हैं और अरिहन्त भगवान् वीतराग आत्मा सिद्ध दशा प्राप्त करते हैं। शुक्ल ध्यान के चार लिंग (लक्षण) हैं। वे इस प्रकार हैं - (१) अव्यथ - अत्यन्त कठिन उपसर्ग में भी व्यथित (चलित) न होना। (२) असम्मोह - सूक्ष्म तात्त्विक विषयों से अथवा देवादिकृत माया से सम्मोहित न होना तथा अचल श्रद्धा रखना। (३) विवेक - आत्मा और देह के पृथक्त्व का वास्तविक ज्ञान होना तथा
कर्तव्य-अकर्तव्य का संपूर्ण विवेक जाग्रत होना। (४) व्युत्सर्ग - सब आसक्तियों से आत्मा का मुक्त हो जाना।
इन चार लिंगों (चिन्हों या लक्षणों) से युक्त आत्मा शुक्ल-ध्यानी समझा जाता
शुक्ल-ध्यानरूप महल में प्रवेश करने के लिए चार आलम्बन (सोपान) शास्त्रों में बताये गये हैं जो निम्नलिखित हैं - (१) क्षमा - क्रोध को शान्त करना। (२) मार्दव - मानी वृत्ति न रखना। (३) आर्जव - माया-वृत्ति को छोड़कर हृदय को विनम्र बनाना। (४) मुक्ति - सब प्रकार से लोभ पर विजय प्राप्त करना।
शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ ये हैं६७ - . (१) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा - अनन्त भव-परम्परा के संबंध में चिन्तन करना।
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