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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
समभाव के अभ्यास के बिना ध्यान नहीं हो सकता और न मन ही स्थिर हो सकता है। मन के स्थिर हुए बिना समाधि एवं शान्ति प्राप्त नहीं होती। जब मन समतामय होता है, तभी अनासक्ति, वीतरागता तथा निर्ममत्व की उपलब्धि होती है और विषमता दूर होती है। जिसकी विषमता दूर हो जाती है वह संकटों पर विजय प्राप्त करके मन को ध्यानस्थ और समाधिस्थ बनाता है। वस्तुतः मन की स्थिरता और समाधि ही सच्चा तप है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ध्यान का महत्त्व बताते हुए कहा है- “हे अर्जुन! निःसंशय मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु अभ्यास से और वैराग्य से इसका निग्रह किया जा सकता है।"
अभ्यास का अर्थ है - एकाग्रता की साधना और वैराग्य का आशय है - विषय से विरक्ति । एकाग्रता के अभ्यास और विषय से विरक्ति की सहायता से मन को वश में किया जा सकता है।
(विरक्ति और अभ्यास के अभाव में) जिसका अन्तःकरण स्वाधीन नहीं हैं, उसे योग का प्राप्त होना अति कठिन है । लेकिन जिसका अन्तःकरण स्वाधीन है, वह यदि (ऊपर निर्दिष्ट) उपायों से प्रयत्न करे तो उसे योग प्राप्त हो सकता
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अनशन से लेकर ध्यान तक बारह तपों का एक अस्खलित क्रम है। तपरूपी धारा का यह एक निर्मल प्रवाह है। यह हमेशा विकसित ही होता जाता है। इस प्रकार जैन-धर्म का तप केवल कायदण्डरूप ही नहीं है, वरन् उससे मानसिक शुद्धि भी होती है, यह स्पष्ट हो जाता है।
बाह्य और अभ्यन्तर तपों का समन्वय
बाह्य और अभ्यन्तर तप के भेदों और उपभेदों का विवचेन किया जा चुका है। दोनों का ही समान स्थान है। कारण यह है कि आत्मशुद्धि के लिए जिस प्रकार उपवास स्वादवर्जन तथा कष्ट-सहिष्णुता की जरूरत है उसी प्रकार विनय, सेवा, स्वाध्याय और ध्यान की भी साधना आवश्यक है। बाह्य और अभ्यन्तर तप का अस्तित्त्व एक-दूसरे पर आधारित है, साथ ही एक-दूसरे का पूरक है। बाह्य तप से अभ्यन्तर तप पुष्ट बनता है और अभ्यंतर तप से अनशन, ऊनोदरि बाह्य तपों की साधना सहजता से होती है।
तपरूपी रथ के बाह्य और अभ्यंतर ये दो पहिये हैं। इन दो पहियों पर ही रथ आधारित है। रथ कभी एक पहिये से नहीं चल सकता। उसके लिए दो पहिये चाहिए। बाह्य तप को यदि अभ्यंतर तप का सहयोग न मिले, तो वह सफल नहीं हो सकता।
बाह्य तप क्रिया-योग का प्रतीक है, तो अभ्यंतर तप ज्ञान योग का । ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय से ही जीवनसाफल्य होता है - ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः।
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