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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
साधक को अपना जीवन ज्यादा से ज्यादा स्वाध्याय-तप में लगाकर शास्त्र की आराधना करनी चाहिए और ज्ञान की उपासना कर उसके दिव्य प्रकाश से जीवन को उज्ज्वल बनाना चाहिए।
(११) व्युत्सर्ग-तप :
अभ्यन्तर तप का यह पाँचवां भेद है। व्युत्सर्ग शब्द 'वि' और 'उत्सर्ग' इन दो पदों से मिलकर बना है। 'वि' का अर्थ है - विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है - त्याग। विशिष्ट त्याग अर्थात् त्याग करने की विशिष्ट पद्धति ही 'व्युत्सर्ग' है।
आशा और ममत्व जीवन के बड़े बंधन हैं। ये बंधन चाहे सम्पत्ति के हों, परिवार के हों, शिष्यों के हों, भोजन-रस के हों या स्वयं के शरीर के हों, हैं तो बंधन या मोह ही। जब तक ये बन्धन नहीं छूटते तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती। व्यत्सर्ग-तप में इन समस्त पदार्थों का और मोह का त्याग किया जाता है। शरीर और प्राणों की भी परवाह नहीं की जाती। सदा-सर्वकाल निर्ममत्व भाव आत्मा को बलिदान के लिए तैयार रखता है।
दिगम्बर आचार्य अकलंक ने व्युत्सर्ग की व्याख्या इस प्रकार की है . निःसंगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग व्युत्सर्ग के आधार हैं। धर्म के लिए तथा आत्म-साधना के लिए स्वयं का उत्सर्ग करने की पद्धति ही 'व्युत्सर्ग' है। . इस तप का आराधक इतना मोहरहित हो जाता है कि उसे अपने शरीर का भी भान नहीं रहता, इसलिए व्युत्सर्ग को कहीं-कहीं 'कायोत्सर्ग' भी कहा गया
साधक व्युत्सर्ग-तप में पाषाण की प्रतिमा के समान स्थिर होकर दंशमशक आदि परीषह आने पर भी और दुष्ट लोगों के द्वारा प्रहार किये जाने पर भी निराकुल भाव से आत्मस्थ रहता है और साधना में दृढ़ता के बढ़ने से, परम सहिष्णुता प्राप्त करता है।
अहंभाव, परिग्रह और ममत्व-भाव के त्याग को 'व्युत्सर्ग-तप' कहते हैं। व्युत्सर्ग का अर्थ है - छोड़ देना या त्याग देना। बाह्य पदार्थों का त्याग 'बाह्य उपाधि' व्युत्सर्ग है। क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा आदि अभ्यन्तर दोषों की निवृत्ति 'अभ्यन्तर उपाधि' व्युत्सर्ग है।
____ 'आवश्यकनियुक्ति' में व्युत्सर्ग के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि व्युत्सर्ग मोक्षपथदर्शक है। व्युत्सर्ग पारलौकिक फलसिद्धि और स्वर्ग है।
कायोत्सर्ग पद में काय का अर्थ है शरीर और उत्सर्ग का अर्थ है परित्याग। इसमें कुछ समय के लिए शारीरिक हलचलों का त्याग करके मानसिक चिन्तन किया जाता है। जैन-साधना में इस तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है और उसे आत्मशुद्धि के प्रत्येक अनुष्ठान के प्रारम्भ में आवश्यक माना गया है।
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