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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
प्रतिक्षण अकाम निर्जरा करता रहता है। परंतु सकाम निर्जरा तो केवल ज्ञानयुक्त तपस्या करने पर ही होती है।१२
(१०) लोकानुप्रेक्षा
त्रिलोक के आकार का चिन्तन करना 'लोकानुप्रेक्षा' है। इस लोक को किसी ने तैयार नहीं किया है और न ही धारण किया है। यह अनादि काल से स्वयंसिद्ध है यह किसी पर आधारित नहीं है, अपितु अवकाश में स्थित है। लोक तीन हैं - अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में सात नरकभूमियाँ हैं। उन नरक-भूमियों को बर्फ, घन वायु और विरल वायु ने घेर रखा है। ये तीनों इतने प्रबल हैं कि पृथ्वी को धारण करने में समर्थ हैं।०३
(११) बोधिदुर्लभानप्रेक्षा
रत्नत्रयरूप बोध की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है यह चिन्तन करना 'बोधिदुर्लभानप्रेक्षा' है। विशेष पुण्योदय से धर्माभिलाषारूप श्रद्धा, धर्मोपदेशक गुरु और धर्मश्रवण की प्राप्ति होती है। परंतु यह सब प्राप्त होने पर भी तत्त्वनिश्चयरूप सम्यक्त्व बोधिरत्न की प्राप्ति होना अत्यंत कठिन है।
(१२) धर्मस्वाख्यात तत्त्वानुप्रेक्षा ।
तीर्थंकरों द्वारा बताया गया (लक्षणयुक्त) अहिंसा धर्म ही जीव का कल्याण करने वाला है, ऐसा चिन्तन करना 'धर्मास्वाख्यात-तत्त्वानुप्रेक्षा' है।।
धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्ष, चिन्तामणि आदि मनोनुकूल फल देते हैं। परंतु अधर्मी लोगों को फल मिलना तो दूर, वह देखने को भी नहीं मिलता। इस संसार में जिनका कोई बंधु नहीं है, उनका बन्धु धर्म है। जिनका कोई मित्र नहीं उनका मित्र धर्म है। जो अनाथ हैं, धर्म उनका रक्षणकर्ता है। धर्म ही संपूर्ण विश्व का एकमात्र रक्षक है। जो धर्म की शरण में पहुँच गये हैं; राक्षस, यक्ष, अजगर, व्याघ्र, सर्प, अग्नि और विष आदि उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
धर्म प्राणिमात्र को नरक-पाताल में गिरने से बचाता है और सर्वज्ञों को अनुपमेय वैभव प्रदान करता है। अर्थात् धर्म अनर्थों से बचाता है और इष्ट अर्थ की प्राप्ति कराता है।४५
बारह भावनाओं का अधिक विस्तृत वर्णन- कुन्दकुन्दाचार्य के द्वादशानुप्रेक्षा, पण्डित दौलतरामजी के 'छहढाला' (पाँचवीं ढाल), और भारतभूषण पं- मुनिश्रीरतनचन्द्रजी म- के गुजराती भाषा में लिखित 'भावनाशतक', सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र, सिद्धसेनगणिकृत स्वोपज्ञभाष्य, भट्टाकलंकदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि- अनेक ग्रंथों में मिलता है।
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