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जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस प्रकार हम देखते हैं कि अंगुत्तरनिकाय में अविद्या के अथवा आसवों के निरोध को संवर कहा गया है । १६
आस्रव और संवर मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्म के आस्रव के द्वार हैं । इसके विपरीत सम्यक्दर्शन, विषयों से विरक्ति, कषायों के निग्रह तथा मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का निरोध करने से कर्मों का आनव नहीं होता है । अतः इनके प्रतिपक्षी अर्थात् सम्यक् दर्शन, विषयों से विरक्ति, कषाय एवं योगनिग्रह ये सभी संवर हैं ।७०
आनव और संवर का पारस्परिक सम्बन्ध
पूर्वबद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम साधक को संवर की साधना करनी होती है । क्योंकि संवर ही नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है । आचार्य हेमचन्द्र ने इस सम्बन्ध में कुछ उदाहरण दिये हैं ।
जिस प्रकार चौराहे पर स्थित मकान के द्वार यदि बन्द नहीं किये जाते तो उसमें निश्चय ही धूल प्रवेश करती है, उसी प्रकार यदि आत्मा ऐन्द्रिय विषय-भोगों को नियन्त्रित नहीं करता है अर्थात् उनका निरोध नहीं करता है तो उसमें अवश्य ही कर्म प्रवेश कर जाते हैं । इसके विपरीत जो साधक बन्धन के इन द्वारों को सम्यक प्रकार से अवरुद्ध कर देता है उसमें कर्मरूपी आसव नहीं होता है।
जिस प्रकार तालाब में सभी ओर से पानी आता है, उसी प्रकार आत्मा भी योगों के निमित्त से चारों ओर से कर्मों से घिरा होता है । जब तक वह संवर नहीं करता, नवीन कर्मों के आगमन को रोक पाने में समर्थ नहीं होता है ।
एक अन्य उदाहरण से यह भी समझाया गया है कि जिस प्रकार छिद्रयुक्त नौका में पानी का प्रवेश होता है, उसी प्रकार असंवृत जीवों में कर्म-मल का प्रवेश धीरे-धीरे होता रहता है । अतः अपनी योग्य प्रवृत्तियों का निरोध करके ही कर्मप्रकृतियों से बचा जा सकता है यही संवर है ।।
पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने के लिए निर्जरा की आवश्यकता होती है । परन्तु नवीन कर्मों का निरोध करने के लिये संवर को आवश्यक माना गया है । संवर के सत्तावन प्रकार माने गये हैं, जिनकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है । जब तक आत्मा आत्मस्वरूप का ज्ञाता नहीं होता है, तब तक वह कर्मों के प्रभाव से संसार में परिभ्रमण करता रहता है । यह समझकर आस्रव का निरोध करके जो आत्मा सत्तावन प्रकार के संवर का पालन करता है वह अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होता है ।
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