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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
७. प्रायश्चित्त - आत्मालोचनपूर्वक अपने द्वारा कृत पापों का प्रायश्चित्त करना। ८. विनय - विनम्रता धारण करना अथवा वरिष्ठजनों को सम्मान देना। ६. वैयावृत्य - ग्लान, वृद्ध एवं रोगी जनों की सेवा करना। १०. स्वाध्याय - आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध करना अथवा सद्ग्रन्थों का
अध्ययन करना-कराना। ११. व्युत्सर्ग - शरीर आदि के प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग करना। १२. ध्यान - शारीरिक स्थिरता एवं मौनपूर्वक आत्मचिन्तन या ध्यान करना।
इन बारह प्रकार के तपों में प्रथम छ: बाह्य तप और अन्तिम छ: अभ्यन्तर तप कहे जाते हैं। जो स्वेच्छापूर्वक तपः-साधना करता है वह पूर्वबद्धसत्ता में रहे हुए कर्मों को नष्ट करके शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। तप रूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन जल जाने पर आत्मा कर्मों के भार से हल्का होता है। तपः साधना करते हुए उत्कृष्ट भावों के आने पर जीव तीर्थंकर नामगोत्र का भी उपार्जन कर सकता है। तप कर्मों को नष्ट करता है, संसार के परिभ्रमण को समाप्त करता है
और आत्मा को मुक्ति प्रदान करता है। उसे सिद्धस्वरूप बना देता है। तप के द्वारा अनेक जन्मों के संचित कर्म भी एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। तपरूपी रत्न अमूल्य रत्न है। इसमें अनेक गुण हैं।
तप या निर्जरा के द्वारा जीव आत्मा को कर्मों के मल से अलग करता है। साथ ही कर्मों से निवृत्त होकर शुद्ध परमोज्ज्वल आत्मस्वरूप को प्राप्त करता
निर्जरा मोक्ष का मार्ग है। जिस व्यक्ति में कर्म की निर्जरा की भावना होती है, उसने मोक्ष मार्ग का अवलम्बन किया है, ऐसा कहा जा सकता है। तप के द्वारा संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं। जिस प्रकार तप इन्द्रियसंयम के रूप में संवर का उपाय है, उसी प्रकार तप कर्मों की निर्जरा का भी उपाय है। तप लौकिक और पारलौकिक सुख का साधन है। वह निःश्रेयस का मार्ग है। वस्तुतः तप तो एक ही है, परन्तु जब वह सकाम होता है तो लौकिक सुखों का साधन बनता है और जब वह निष्काम होता है तो निर्जरा या मुक्ति का साधन बनता
सकाम तप से अभ्युदय और निष्काम तप से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार एक ही अग्नि अन्न को तपाने और जलाने दोनों का काम करती है; उसीप्रकार तप एक ओर लौकिक और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति कराता है, तो दूसरी ओर पूर्वबद्ध कमों को नष्ट करता है अथवा जिस प्रकार किसान धान्य के लिये खेती करता है, किन्तु घास-भूसे आदि की प्राप्ति स्वाभाविक रूप से हो जाती है। उसी प्रकार तप का मुख्य लक्ष्य तो कर्मक्षय होता है, किन्तु उससे लौकिक सुखों की प्राप्ति भी आनुषंगिक रूप से हो जाती है।
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