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जैन-दर्शन के नव तत्त्व ३. शीत परीषह : अत्यंत ठंड पड़ने पर भी प्रतिकार करने की भावना न होना
और उसे शांति से सहन करना। ४. उष्ण (गर्म) परीषह : ग्रीष्म ऋतु आदि के निमित्त से होने वाली उष्णता
(गर्मी) के दुःख से मन में चंचलता न आने देना तथा गर्मी को शांति से
सहन करना। ५. दंशमशक परीषह : मच्छर, मक्खी या अन्य कीट के काटन से होने वाली
पीड़ा को शान्ति से सहन करना। ६. नग्नत्व परीषह : वस्त्ररहित होने पर भी लज्जा न आना, बालक के समान
निर्विकार रहना तथा इन्द्रियों में विकार उत्पन्न न होने देना। उत्तराध्ययन में
इसे 'अचेल परीषह' कहा गया है। ७. अरति परीषह : परिश्रम करने पर भी संयम न छोड़ना। ८. स्त्री परीषह : सुंदर स्त्रियों के इशारों से मन को विचलित न होने देना। ६. चर्या परीषह : अनेक गांवों में भटकना और कष्ट सहन करना। १०. निषधा परीषह : ध्यान आदि के लिए निश्चित किए हुए आसन से विचलित
न होना तथा स्थिर आसन के कारण होने वाले दुःख को सहन करना। ११. शय्या परीषह : शास्त्र के अनुसार एक ही करवट से सोने से तथा
असमतल भूमि पर सोने के कारण होने वाले कष्ट सहन करना। १२. आक्रोश परीषह : अति कठोर वचन सुनने पर भी शांत रहकर उसे सहन
करना और क्रोधित न होना। १३. वध परीषह : वध जैसे संकट की घड़ी आने पर भी समभाव रखना तथा
द्वेष न करना। १४. याचना परीषह : प्राण जाने की नौबत आने पर भी आहार के लिए याचना
न करना और समाधानी रहना। १५. अलाभ परीषह : आहार आदि का लाभ न होने पर भी लाभ होने जैसी
शान्ति रखना। १६. रोग परीषह : व्याधि होने पर व्याकुल न होते हुए वेदना को शान्ति से सहन
करना। १७. तृणस्पर्श परीषह : मार्ग में चलते समय काँटें तथा गड्डे आदि से होने वाली
वेदना को प्रतिकार न करते हुए सहन करना। १८. मल परीषह : शरीर गन्दा होने पर भी घृणा न करते हुए आत्म-भावना में
लीन रहना। १६. सत्कार-पुरस्कार परीषह : अज्ञानी लोगों द्वारा अपमान होने पर उनसे सम्मान
की इच्छा न करना। किसी के द्वारा सम्मान किये जाने पर उसे भूल न
जाना। मान-अपमान में समभाव रखना। २०. प्रज्ञा परीषह : अपने ज्ञान या पाण्डित्य का गवे न करना।
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