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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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करके संवर-पंचक का भावपूर्ण रक्षण करने से जीव कर्म-रज से मुक्त होता है और सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करता है। "
संवर - पंचक में संवर के संबंध में कहा गया है कि संवर अनास्रवरूप है, छिद्ररहित है, अपरिस्रावी है, संक्लेश से रहित है और समस्त तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है । परन्तु आसव इसके विपरीत है । इस प्रकार प्रश्नव्याकरणसूत्र में आनव और संवर का विस्तृत वर्णन है । "
आस्रव और संवर में अन्तर
जिन पाप-क्रियाओं से आत्मा बाँधा जाता है, उन क्रियाओं को आस्रव या कर्मबंध का द्वार कहते हैं । संयम मार्ग पर प्रवृत्त होकर इन्द्रिय, कषाय और संज्ञा का निग्रह करने पर ही आत्मा में पाप का प्रवेश द्वार बंद होता है। इसे ही संवर कहते हैं ।
जिसे किसी भी वस्तु के प्रति राग, द्वेष या मोह नहीं है, और जो सुख-दुःख को समान मानता है, ऐसे भिक्षु (साधु) को शुभ या अशुभ कर्म का बंध नहीं होता । जिस विरक्त मनुष्य की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में पाप-भाव या पुण्य-भाव उत्पन्न नहीं होता, उसे हमेशा संवर होता है । वह शुभ और अशुभ कर्मों से बद्ध नहीं होता । ६२
आनव को एक दृष्टि से 'विकारी परिणाम के भाव आना' कहा जाता है । जिस प्रकार हवा के कारण वृक्षों में परिस्पंदन ( कंपन) की गति बढ़ती है, उसी प्रकार आत्म- प्रदेश में इन कषाय आदि विकारी भावों के कारण हलचल उत्पन्न होती है । इन हलचल की क्रियाओं को ही आसव कहते हैं । संवर में जिस प्रकार कर्मरूपी हवा की गति रुक जाती है, उसी प्रकार आत्म- प्रदेश में राग, द्वेष और मोह आदि भाव भी रुक जाते हैं । जैसे कर्म के कारण को पहचाना जाता है, वैसे ही, उसे आत्म- प्रदेश में आया जानकर कषाय आदि को रोकने का प्रयत्न किया जाता है, यही संवर है । कर्म आये और फिर वह अपने आप रुक जाये, ऐसा कभी हो नहीं सकता। हवा का प्रवाह आता है और चला जाता है, परन्तु हवा का वेग जब तक रहता है, तब तक परिस्पंदन करता रहता है। उसकी समाप्ति होने पर यह परिस्पंदन आदि रूप क्रिया अपने आप ही रुक जाती है। आत्मा का स्वभाव एक जैसा ही रहता है, परन्तु आत्मा विकारी भाव से अपनी क्रिया करता है । जो विकारी भावों की क्रियाओं को समझता है, वही आत्म-स्वरूप में स्थित होता है। आत्म-स्वरूप में स्थित होने को ही 'संवर' कहते हैं 1
आस्रव कर्म का कर्ता, कर्म का उपाय, कर्म का हेतु, उसका निमित्त और कर्म के आगमन का द्वार है ।
दशवैकालिकसूत्र के चौथे अध्ययन में कहा गया है कि आस्रव द्वार को बंद करने से पाप कर्म नहीं होता। तीसरे अध्ययन में भी आस्रव का उल्लेख
है । ६३
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