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जैन-दर्शन के नव तत्त्व तो समझना चाहिए कि उसने ठीक प्रकार से धर्म को नहीं समझा । घर जितना ऊँचा बनाना है, उतनी ही उसकी बुनियाद गहरी होनी चाहिए। इसी प्रकार जीवन को जितना ऊँचा बनाना है, उतना ही नम्र होना चाहिए।
__संत तुकाराम महाराज ने नम्रता का महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त दिया है। वे कहते हैं- बड़ी बाढ़ में वृक्ष बह जाते हैं लेकिन कोमल घास बनी रहती है' - महापुरे झाड़े जाती तेथे लव्हाजे वाचती ।
ऑगस्टाइन कहता है
"Should you ask me, what is the first thing in religion? | should reply, the first, second and third thing therein - nay, all - is humility."
स्वयं का हित चाहने वाले को विनय में स्थिर रहना चाहिए। (३) आर्जव : मन, वचन और काया में कुटिलता न होना ही आर्जव अर्थात् सरलता है। भाव-विशुद्धि और सरलता-आर्जव के लक्षण हैं। ऋजुभाव या ऋजुकर्म को भी आर्जव कहते हैं।
जो शुभ विचार रखता है, दुष्ट भाव या मायाचारी (कपटी) परिणामों को छोड़कर शुद्ध मन से चारित्र्य का पालन करता है, वह आर्जव धर्म का आचरण करता है।
योग का वक्र न होना आर्जव है। जिस प्रकार रस्सी के दोनों सिरों को खींचने पर वह सीधी हो जाती है, उसी प्रकार मन से कपट दूर होने पर मन सरल बनता है। अर्थात् मन की सरलता का ही नाम आर्जव है।
जो विचार मन में होते हैं, वे ही वचनों के द्वारा प्रकट होते है और वे ही सफल होते हैं। अर्थात् शरीर का भी उन्हीं के अनुसार कार्य होता है। यही आर्जव धर्म है। इसके विरुद्ध दूसरों को फँसाना अधर्म है। ये दोनों क्रमशः देवगति और नरकगति के कारण हैं।
जो मुनि दुष्ट विचार और कार्य नहीं करते, बरी बातें नहीं बोलते साथ ही अपने दोष छिपाकर नहीं रखते, वे ही आर्जव-धर्म का आचरण करते हैं। क्योंकि मन, वचन और काया की सरलता का नाम आर्जव हैं।
जिसमें आर्जव-गुण होता है, उसी में धर्म स्थिर रहता है। जो सरल मन से युक्त होता है, उसी को शुद्धि प्राप्त होती है, और जो शुद्ध होता है, उसी में धर्म रहता है। जो धर्मयुक्त आत्मा है उसे घी से युक्त अग्नि के समान परम निर्वाण (विशुद्ध आत्मदीप्ति) की प्राप्ति होती है।०० (४) शौच : शौच का अर्थ अलुब्धता है। लोभ कषाय का त्याग या लोभरहित प्रवृत्ति-शौच धर्म का लक्षण है । भाषिक दृष्टि से शौच शब्द का अर्थ शुचिभाव या
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