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जैन-दर्शन के नव तत्त्व क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा पवित्रता है। क्षमा से संपूर्ण जगत व्याप्त है।
क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है। तपस्वियों का ब्रह्म है। क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा यज्ञ है और मनोनिग्रह है।० (२) मार्दव : संवर के दस धर्मों में दूसरा धर्म मार्दव है। मार्दव अर्थात् बड़ों को मान देना। बड़ों के सामने नम्रता धारण कर उद्दण्डता का व्यहार न करना मार्दव-धर्म का लक्षण है। नम्र वृत्ति रखना और गर्व न करना भी मार्दव का लक्षण है .६२ मृदोर्भावःमार्दवम् तथा मृदोः कर्म मार्दवम्। ।
इसका अर्थ है - जाति, कुल, रूप आदि का गर्व न करना (मद, मान और कषाय का त्याग करना) मार्दव है।
___मृदु-भाव, कोमलता, मृदु-कर्म या नम्र व्यहार को मार्दव कहते है। इसका तात्पर्य है - मद का निग्रह या मान कषाय का विनाश । इसे ही मान कषाय का अभाव या धर्म कहा जाता है।६३
___ मार्दव अर्थात् विनय । कहा गया है की विनय जैन-धर्म का मूल है। विनय ही मुक्ति-पथ की सहायिका है। जो विनयशील नहीं है, वह स्वयं पर सयंम नहीं रख सकता और तपस्या भी नहीं कर सकता।
विनय के कारण ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व से चारित्र्य की प्राप्ति होती है। चारित्र्य से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार विनय के कारण क्रमशः उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति होती है और अंत में मोक्ष प्राप्त होता है।५।।
विनय के बारे में कहा गया है कि अविनीतों को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत साधक को संपत्ति प्राप्त होती है।६६
जिनमें नम्रता है, उनके सामने विश्व झुक जाता है। जिनके मन में गर्व है, उनका सभी तिरस्कार करते हैं। प्रकृति का यही क्रम है। जो सब से छोटा बनता है, वही बड़ा बन सकता है और निसर्ग भी उसके सामने नम्र हो जाता है।
फल लगने पर जिस प्रकार पेड़ झुक जाता है, उसी तरह मनुष्य को भी धन, वैभव या ज्ञान से संपन्न होने पर अधिक नम्र होना चाहिए। मनुष्य जैसे-जैसे धर्म को प्राप्त करता जाता है, वैसे-वैसे वह अधिक नम्र बनाता जाता है। धर्म को जानने पर भी यदि कोई नम्र बनने के बजाय अभिमानी बन जाय,
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