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षष्ठ अध्याय
संवर-तत्त्व (Arrest of the influx of Karma)
नव तत्त्वों में 'संवर' छटा तत्त्व है। आनव को रोकना तथा कर्म को न आने देना 'संवर' है। संवर आस्रव का प्रतिपक्षी है। आत्म-प्रदेश में आगमन करने वाले कर्मों का प्रवेश रोकना ही संवर का कार्य है।
अनादि काल से जीव कर्मावृत बनकर संसार-सागर में परिभ्रमण कर रहा है। जीव कभी कों का क्षय करता है तो कभी कमों का बंध करता है। परंतु क्षय या बंध की प्रक्रिया से आत्मा भवपार नहीं हो सकता। आसव के कारण नये कमों की वृद्धि होती ही रहती है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये कर्मवृद्धि के कारण हैं। इनसे कमों का आगमन कैसे होता है, आत्म-परिणामों की स्थिति कैसी होती है, मिथ्यात्व के कारण आत्मा को संसार में कैसे परिभ्रमण करना पड़ता है आदि का वर्णन आस्रव तत्त्व में हो चुका है।
आत्मा कर्मावृत बनकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है, फिर भी आत्म-विकास की शक्ति उसमें छिपी रहती है। अँधेरे से प्रकाश की ओर और अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने के लिए जीव के प्रयत्न चलते रहते हैं। इस प्रकार के प्रयत्न करना ही संवर-मार्ग पर चलना है।
___ आसव-तत्त्व में आत्मा के पतन की अवस्था को दिखाया गया है और संवर में आत्मा के उत्थान की अवस्था दिखाई गयी है। अगर जीव में दोष हैं, तो उन दोषों को दूर करने के उपाय भी होने ही चाहिए। दुर्गुण होंगे तो उन्हें दूर करके सद्गुण भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर आम्नव के बाद संवर का क्रम आता है क्योंकि आसव में दोष-उत्पादक कारण बताये गये हैं और संवर में उन कारणों का निर्मूलन करने वाले उपाय बताये गये हैं।
आत्म-परिणाम अगर वैतरणी नदी है, तो मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु भी है और जैसे नरक में कूटशाल्मली वृक्षों का जंगल है, वैसे ही स्वर्ग में नन्दनवन भी है। इसी प्रकार आस्रव है, तो उसका प्रतिपक्षी संवर भी है।
बंध और मोक्ष आत्म-परिणाम पर ही निर्भर हैं। जब आत्मा अशुभ से निवृत्त होकर शुभ की तरफ मुड़ता है, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर जाता है, अविरति से विरति की ओर मुड़ता है, तब कमों का आगमन रोका जाता है और आत्मा आस्रव से संवर की ओर प्रवृत्त होता है।
__ जब घर का द्वार बंद होता है तब कोई भी घर में प्रवेश नहीं कर सकता, धूल भी नहीं आ सकती। नाव में छिद्र न हो तो नाव में पानी प्रवेश नहीं कर सकता। झरना बंद करने पर तालाब में पानी प्रवेश नहीं कर सकता। उसी
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