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जैन दर्शन के नव तत्त्व
संवर आत्मा का निग्रह करने से होता है। यह निवृत्तिपरक है, प्रवृत्तिपरक नहीं । इसलिए प्रवृत्ति ही आस्रव और निवृत्ति ही संवर है । जिन उपायों से आस्रव का निग्रह होता है, वे उपाय ही संवर हैं।
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जिस प्रकार रोगी का रोग नष्ट होने में औषधि कारण है उसी प्रकार आस्रव को रोकने वाले उपाय संवर हैं । सारांशतः कहा जा सकता है कि आस्रव का निरोध करना ही संवर है । "
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संसार में आने का कारण आस्रव है और मोक्ष का कारण संबर है। यही धर्म के सिद्धान्तों का सारांश है ।"
आसव के कारण नये कर्मों का प्रवेश होता है और संवर से नये कर्मों का प्रवेश रुक जाता है। आध्यात्मिक विकास का क्रम आस्रव निरोध के विकास पर आधारित है। इसलिए जैसे-जैसे आस्रव निरोध बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे गुणस्थान की भी वृद्धि होती जायेगी ।
" गुणस्थान" जैन-धर्म का पारिभाषिक शब्द है। आत्मा के गुणों का क्रमशः विकास जिस स्थान पर होता है उस स्थान को जैन-धर्म में " गुणस्थान" कहते हैं। समस्त कर्मों से आत्मा की मुक्ति होकर उसे जो मुक्तावस्था प्राप्त होती है, उस अवस्था को जैनियों ने "निर्वाण" कहा है। कर्म बंधन आत्मा की भावना पर निर्भर करता है। भावना का अर्थ है विचार । आत्मा जैसे-जैसे बुरे विचार मन में लाता है, वैसे-वैसे उसके दुर्गुण बढ़ते हैं। गुणस्थान के कारण आत्मा में कौनसे भाव हैं यह समझा जाता है और आत्मा की योग्यता क्या है, यह भी समझा जाता है।
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जैन-तत्त्वज्ञान में गुणस्थानों का विशेष महत्त्व है । जो अन्तिम गुणस्थान पर आरूढ़ होता है, वह निर्वाण (मोक्ष) पद पर आरूढ़ होता है । गुणस्थान चौदह हैं। ये चौदह गुणस्थान मोक्ष- मन्दिर की चौदह सीढ़ियाँ हैं । २
आत्मा के कर्म के उपादानहेतुभूत परिणाम का अभाव संवर कहलाता है। इसलिए कुछ कर्मों के आगमन के निमित्त का अभाव ही संवर है ।"
संवर के अस्तित्त्व के लिए भगवान् महावीर स्वामी ने सूत्रकृतांग शास्त्र में कहा है 'यह मत समझो कि आस्रव और संवर नहीं है, अपितु यह समझो कि आस्रव और संवर हैं' ।*
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आस्रव द्वार कर्म के आगमन का द्वार है । यह द्वार बंद करने पर संवर का अस्तित्त्व स्थापित होता है । आत्मा को वश में करने पर आत्म-निग्रह से संवर होता है। यह उत्तम गुणरत्न है क्योंकि मोक्ष का मुख्य मार्ग संवर ही है ।
संवृत आत्मा और सास्रव आत्मा
नौका को पानी में उतारने पर यदि नौका में पानी प्रवेश करे तो यह सिद्ध होता है कि वह आनविनी या सछिद्र है । यदि नौका में पानी प्रवेश न करे तो 'वह अनानविनी या छिद्ररहित है' यह सिद्ध होता है । इसी प्रकार जिस आत्मा
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