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जैन दर्शन के नव तत्त्व
(३) अप्रमाद :
आत्म- प्रदेश में होने वाले अनुत्साह का क्षय करना अप्रमाद है। धर्म के बारे में उत्साह रखना अप्रमाद है ।
यदि कर्मरूपी रोग की सम्यक् प्रकार से निवृत्ति होने पर सत्प्रवृत्ति को जारी नहीं रखा जाये, तो कर्मरूपी रोग के परमाणुओं का क्षय नहीं हो सकता । जैसे उचित औषधि के उपचार से रोग तो दूर हुआ, परंतु उसके बाद वैद्य के द्वारा बताए गये पथ्य और उपचार के अनुसार आचरण नहीं किया, तो पूर्णतः शरीर - स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् प्रमाद, कर्म रोग का कारण है और उसे दूर करना ही अप्रमाद है 1
साधक को ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य की आराधना करनी चाहिए, साथ ही जीवन को सफल बनाने के लिए अप्रमाद- संवर में सदैव मग्न रहना चाहिए। क्योंकि अप्रमाद के द्वारा कर्मबंध नहीं होता और दुःखानुभव भी नहीं होता ।
सब प्रकार के प्रमादों से रहित और व्रत, गुण तथा शील से विभूषित, सद्ध्यान में लीन रहने वाले सम्यग्ज्ञानी साधु को अप्रमत्त संयमी कहते हैं । पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों को धारण करना और सब कषायों का अभाव होना 'अप्रमाद' कहलाता है।
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(४) अकषाय :
अप्रमाद के बाद अकषाय का क्रम आता है। अकषाय कर्मास्रव को रोकने का चौथा उपाय है। अकषाय के द्वारा मानव मोक्ष तक पहुँच सकता है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । इस अनंत चतुष्क के कारण ही आत्मा को संसार - परिभ्रमण करना पड़ता है । भवपार होना है तो इस अनंत चतुष्क का त्याग करना चाहिए और अकषाय को धारण करके भवपार होना चाहिए। अकषाय संवर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
(५) अयोग :
यह संवर का पाँचवां प्रकार है । 'अयोग' का अर्थ है मन, वचन और काया की विकारोत्पादक वृत्तियों का निग्रह करना। दूसरे के अनिष्ट का चिन्तन करना, दुष्ट इच्छा करना, ईर्ष्या और वैर भाव रखना ये दुष्ट मनोयोग हैं। किसी की निन्दा करना, गाली देना, झूठा कलंक लगाना तथा असत्य बोलना ये अशुभ वचन- योग हैं। चोरी एवं कुकर्म करना आदि अशुभ काय योग हैं। जब इस अशुभ प्रवृत्ति को रोका जायेगा और जीव द्वारा शुभ प्रवृत्ति होगी, तभी कर्मानव रुकेगा ।
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