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जैन दर्शन के नव तत्त्व
इस प्रकार समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने से, साधु को असंयमरूप परिणाम के निमित्त से जिन कर्मों का आनव होता है, उनका संवर हो जाता है ।
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समिति और गुप्ति का महत्त्व :
जैन-धर्म की साधना में समिति और गुप्ति का विशेष स्थान है। क्योंकि समिति और गुप्ति के सम्यक् पालन से साधक संसार-चक्र से शीघ्र मुक्त हो जाता है । इन पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को मिलाकर 'आठ प्रवचन-माता' भी कहते हैं । ७१
समिति और गुप्ति को 'आठ प्रवचन-माता' कहा गया है क्योंकि ये प्रवचनों को जन्म देती हैं। ये प्रवचनों की संरक्षिका भी हैं । प्रवचन अर्थात् श्रुतज्ञान से साधक सम्यक् शिक्षा ( उचित ज्ञान ) प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए समर्थ होता है ।
शास्त्र के अनुसार शरीर का जो सम्यक् वर्तन है, उसे समिति कहते हैं । मन, वचन और काया के सम्यक् योग निग्रह को गुप्ति कहते हैं ।
वस्तुतः पाँच समितियाँ चारित्र्य की शुभ प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों की निवृत्ति के लिए हैं । २
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दस धर्म :
संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों में से तीन गुप्तियों और पाँच समितियों के विवेचन के बाद दस प्रकार के धर्म आते हैं।
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धर्मों की भूमिका :
गुप्ति में प्रवृत्ति का संपूर्णतः विरोध होता है । जो गुप्ति - पालन में असमर्थ है, उसे सुप्रवृत्ति के सही प्रकार दिखाने के लिए 'एषणा' आदि समितियों के उपदेश हैं। दुष्प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद (दोष) - परिहार के लिए और सावधानता से वर्तन के लिए क्षमा आदि उत्तम धर्मों का उपदेश बताया गया है । ७३
धर्म के आचरण के विषय में कहा है कि जो जीव धर्म का आचरण किये बिना परलोक में जाता है, वह व्याधि और रोग आदि से पीड़ित होकर अत्यंत दुःखी होता है क्योंकि धर्म के द्वारा मन के कषायों को जीतने के लिए उनके विरोधी गुणों का अभ्यास करवाया जाता है। इस प्रकार धर्म कषाय-विजय का भी कारण है
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धर्म के दस भेदों को समझने से पूर्व धर्म का महत्त्व क्या है, यह समझना अत्यंत आवश्यक है।
गुणभद्रदेव - विरचित आत्मानुशासन में धर्म का बड़ा महत्त्व बताया गया है । उसमें कहा गया है ' हे जीव ! तू सुख में हो या दुःख में, संसार की इन
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