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जैन दर्शन के नव तत्त्व
मन-गुप्ति : दुष्ट संकल्पों का त्याग करना और शुभ संकल्पों को धारण करना
ही मन - गुप्ति कहलाता है।
सब प्रकार की कल्पनाओं से रहित तथा पूर्णतः समभाव में स्थित आत्मा में रमने वाला मन 'मनोगुप्ति' है । ४२
वचन- गुप्ति : बोलने के हर प्रसंग में वचनों का नियमन करना (मर्यादित बोलना ) या उचित समय पर मौन धारण करना 'वचन- गुप्ति' है। दूसरे शब्दों में - संज्ञा आदि का त्याग करके सर्वथा मौन धारण करना और भाषण ( बोलने) के संबंध में व्यापार (क्रियाओं) को रोकना वचन - गुप्ति है । ३
काय - गुप्ति : किसी भी वस्तु को लेने, रखने या उठाने आदि में - जीव-जंतु नहीं मरने चाहिए- इस प्रकार विवेक रखना 'कायगुप्ति' है । देव, मनुष्य और तिर्यंच के संबंध में उपसर्ग होने पर भी कायोत्सर्ग में स्थित मुनि के शरीर की स्थिरता 'कायगुप्ति' है । उपसर्ग होने पर भी मुनि कायोत्सर्ग करके अपने शरीर की हलचल आदि शारीरिक क्रियाओं को रोकते हैं। शरीर को स्थिर और अकंप रखते हैं । यही 'कायगुप्ति' है। सोना, उठना, चलना, फिरना, आवागमन करना आदि क्रियाओं में नियम-युक्त बर्ताव करना भी 'कायगुप्ति' है।**
सारांशतः कहा जा सकता है कि राग-द्वेष से मन को परावृत्त करना 'मनोगुप्ति' है। असत्य भाषण से निवृत्त होना या मौन धारण करना 'वचनगुप्ति' है। औदारिक आदि शरीर की जो क्रियाएँ होती हैं, उनसे निवृत्त होना 'कायगुप्ति' है । अथवा हिंसा, चोरी आदि पाप - क्रियाओं से परावृत्त होना 'कायगुप्ति' है।
'काय गुप्ति' से जीव को संवर ( अशुभ प्रवृत्ति के निरोध) का लाभ होता रहता है । काय - गुप्ति होने के बाद पुनः होने वाले पाप - आस्रव का, संवर निरोध करता रहता है । ४६
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पाँच समितियाँ :
समिति, सत्प्रवृत्ति और विशुद्धि- समानार्थक शब्द हैं। जब तक शरीर का त्याग नहीं होता तब तक जीवन व्यतीत करने के लिए कुछ न कुछ बोलना, खाना, पीना, उठना, बैठना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। इसलिए संवर अशक्य है । अतः समिति - सम्यक् प्रकार की प्रवृत्ति का विधान किया गया है।
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समिति की व्याख्याएँ :
प्राणातिपात जीव-हिंसा से निवृत्त होने को और सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करने को 'समिति' कहते हैं। समिति शब्द जैन आगम का पारिभाषिक शब्द है 1 प्रयत्नपूर्वक आत्मा की सम्यक् प्रवृत्ति ( सम् + इ ) को समिति कहते हैं । समिति (सम्यक् प्रवृत्ति) का अर्थ है सावधानीपूर्वक कार्य करना । किसी भी प्राणी
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